व्यक्ति मटीने बनुं विश्वमानवी
माथे धरूं धूल वसुन्धरानी
-उमाशंकर जोशी
जैसा की कहा जाता है भाषा किसी भी संस्कृति की पहली पहचान होती है गुजराती भाषा भी अपने संस्कृति और परिवेश की मूल पहचान और विरासत है। गुजराती भाषा एक ऐसी भाषा है जो अपनी सुंदरता से लोगो को आकर्षित करने का कार्य करती है लोगो को बांधती है व अपनी विशेषताओं से प्रभावित करती हैं जिसे आज के वक़्त में केवल भारत के लोग ही नहीं परन्तु विश्व भर के कई लोग समझना और सीखना चाहते हैं।आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं में से गुजराती भाषा का विकाश शौरसेना प्राकृत के परवर्ती रूप नागर अपभ्रंश से हुआ है। लगभग ३ करोड़ लोगो द्वारा बोली जाने वाली यह भाषा मुख्य रूप से गुजरात राज्य ,दीव और मुंबई में बोली जाती है जो नवीन भारतीय-आर्य भाषाओं के दक्षिण-पश्चिमी समूह से सम्बन्धित है। गुजराती भाषा का जनन भी बाकी भाषाओ की तरह संस्कृत भाषा से ही हुआ है।1592 से संबंधित एक पांडुलिपि माना जाता है कि गुजराती लिपि में सबसे पुराना ज्ञात दस्तावेज है। 1797 में इसे प्रिंट में अपनी पहली उपस्थिति मिली और इसका उपयोग मुख्य रूप से पत्र लिखने और 19 वीं शताब्दी तक खाते रखने के लिए किया गया था, जबकि साहित्य और अकादमिक लेखन के लिए देवगिरी लिपि का उपयोग किया गया था। लेकिन अब गुजराती लिपि का उपयोग गुजराती लिखने के लिए किया जाता है इस भाषा के विकास को कुछ भाषाशास्त्रीय विशेषताओं में परिवर्तन के आधार पर तीन चरणों में विभाजित किया जा सकता है प्राचीन गुजराती (12वीं-15वीं शताब्दी),मध्य गुजराती (16वीं-18वीं शताब्दी), और
नवीन गुजराती (19वीं शताब्दी के बाद)
बात करे इसके साहित्य की तो गुजराती साहित्य भारतीय भाषाओं के सबसे अधिक समृद्ध साहित्य में से एक है जिनमे उमाशंकर जोशी ,दलपतराम के साथ कई महान लेखकों की कृतियां मौजूद हैं। तो चलिए पढ़ते हैं ऐसे ही कुछ कविओं की श्रेष्ठ रचनाओं को:
उमाशंकर जोशी(21 जुलाई 1911 - 19 दिसंबर 1988) : उमाशंकर जोशी एक गुजराती साहित्यकार थे जिनकी रचनाओं में गुजरात की संस्कृतियों की झलकियां साफ़ दिखती हैं।1967 में जोशी जी को ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया था वहीं इनके द्वारा रचित एक समालोचना कविनी श्रद्धा के लिए उन्हें सन् १९७३ में साहित्य अकादमी पुरस्कार (गुजराती) से सम्मानित किया गया था। उनकी कुछ रचनाओं की प्रस्तुरी आपके समक्ष प्रस्तुत है :
[निशीथ हे! नर्तक रुद्ररम्य !]
निशीथ हे! नर्तक रुद्ररम्य !
स्वर्गंगनो सोहत हार कंठे,
कराल झंझा- डमरू बजे करे,
पौंछां शीर्ष घूमता धूमकेतु
तेजोमेघोनी ऊडे दूर पामरी.
हे सृष्टिपाटे नटराज भव्य !
भूगोलार्ध, पायनी ठेक लेतो,
विश्वान्तर्ना व्यापतो गर्त ऊँडा.
प्रतिक्षणे जे चकराती पृथ्वी,
पीठे तेनी पाय मांडी छटाथी ताली लेती दूरना तारकोथी.
फेलावी बे बाहु, ब्रह्मांडगोले वींझाई हैतो
घूमती पृथ्वी साथ.
घूमे, सुघूमे चिरकाल नर्तने,
पडे परन्तु पद तो लयोचित
वसुन्धरानी मृदु रंगभोमे:
वर्जत ज्यां मंद्र मृदंग सिंधुनां
-उमाशंकर जोशी
[छोटा मोरा खेत चौकोना]
छोटा मोरा खेत चौकोना
कागज़ का एक पन्ना,कोई अंधड़ कहीं से आया
क्षण का बीज बहाँ बोया गया ।
कल्पना के रसायनों को पी
बीज गल गया नि:शेष;
शब्द के अंकुर फूटे,
पल्लव-पुष्पों से नमित हुआ विशेष
-उमाशंकर जोशी
दलपतराम भयभाई त्रावड़ी (21 जनवरी 1820 - 25 मार्च 1898) :भारत में 19 वीं सदी के दौरान गुजराती भाषा महान कवि थे।
उन्होंने अहमदाबाद में एक सामाजिक सुधार आंदोलनों का नेतृत्व किया, और अंधविश्वास, जाति प्रतिबंध और बाल विवाह जैसी कुप्रथाओं के खिलाफ अपनी लेखनी से आवाज उठाई ।
दलपतराम द्वारा लिखी एक गुजराती कविता और उसके अर्थ की प्रस्तुति आपके समक्ष प्रस्तुत है :
મા
હતો હું સૂતો પારણે પૂત્ર નાનો
રડું છેક તો રાખતું કોણ છાનો?
મને દુ:ખી દેખી દુ:ખી કોણ થાતું?
મહા હેતવાળી દયાળી જ મા, તું!
સૂકામાં સૂવાડે, ભીને પોઢી પોતે
પીડા પાળું પંડે, તજે સ્વાદ તો તે
મને સુખ માટે, કટુ કોણ પાતું?
મહા હેતવાળી દયાળી જ મા, તું!
પિતા
છડો હું હતો છોકરો છેક છોટો
પિતા, પાળી પોષી મને કીધ મોટો
રૂડી રીતથી રાખતા રાજી રાજી
ભલા, કેમ આભાર ભૂલું, પિતાજી?
મને નીરખતા નેત્રમાં નીર લાવી
લઇ દાબતા છાતી સાથે લાવી
મુખે બોલતા બોલ મીઠા મીઠાજી
ભલા, કેમ આભાર ભૂલું, પિતાજી?
~ દલપતરામ
प्रस्तुत कविता का हिंदी अर्थ :
मां
मैं सबसे छोटा बेटा था
कौन है जो रोता रहता है?
मुझे उदास देखकर कौन दुखी होगा?
महान दयालु माँ, आप!
सूखे, गीले बिस्तर में ही सोता है
दर्द कम हो जाता है, इसका स्वाद ताजा हो जाता है
मेरी खुशी के लिए, कड़वा कौन पाता है?
महान दयालु माँ, आप!
पिता
मैं बहुत छोटा लड़का था
पापा, शिफ्ट शिफ्ट मुझे बड़ा बनाती है
रूडी इसे इस तरह रखने के लिए खुश है
अच्छा, तुम क्यों नहीं भूल जाते, पिताजी?
इसने मेरी आंखों में आंसू ला दिए
लोई को छाती से दबा कर लाना
मुंह से निकली मीठी-मीठी बातें
अच्छा, तुम क्यों नहीं भूल जाते, पिताजी?
~ दलपतराम
लाभशंकर ठाकर :लाभशंकर ठाकर गुजराती भाषा के विख्यात साहित्यकार हैं। इनके द्वारा रचित एक कविता-संग्रह टोळा आवाज़ घोंघाट के लिए उन्हें सन् 1991 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। लाभशंकर ठाकर द्वारा लिखी एक गुजराती कविता और उसके अर्थ की प्रस्तुति आपके समक्ष प्रस्तुत है :
મૂક
વાતાયન મહીં ઊભી હતી
શ્યામા.
ગાલના અતિ સૂક્ષ્મ છિદ્રોથી પ્રવેશી
લોહીની ઉષ્મા મહીં સૂતેલ આકુલતા નરી
સૂર્ય સંકોરી ગયો.
માધુર્ય જન્માવી ગયો.
ઉન્નત સ્તનોને અંગુલિનો સ્પર્શ જેવો
એવી સ્મૃતિ શી લોહીમાં થરકી ગઈ !
ઉદરમાં
આષાઢનું ઘેઘૂર આખું આભ લૈ
પીંજરામાં ક્લાન્ત ને આકુલ