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दर्द और उम्मीद के शायर निदा फ़ाज़ली

निदा फाजली, भारतीय संगीत और फ़िल्म जगत में एक ऐतिहासिक नाम है. साथ ही उन्होंने उर्दू अदब में एक खास पहचान बनाई है. उनके गीतों, गज़लों और नग़्मों ने लाखों दिलों को छुआ है. उनके शब्द न केवल कानों तक पहुंचते थे, बल्कि वे लोगों के दिलों में उतर जाते थे। निदा फ़ाज़ली का असली नाम मुक़्तदा हसन था। उनका जन्म 12 अक्टूबर 1938 में हुआ था और दिल का दौरा पड़ने के कारण 8 फरवरी 2016 को वे इस दुनिया को अलविदा कह गये. उनके बाल्यावस्था के समय भारत-पाकिस्तान विभाजन हुआ। इस विभाजन ने उन्हें उनके परिवार से अलग कर दिया, और यही दर्द बार-बार उनकी कविताओं में दिखाई पड़ता है।

गम ने बनाया शायर

कुछ मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार एक लड़की की मौत के गम ने निदा को शायर बना दिया. कहा जाता है कि कॉलेज के दिनों में वे एक लड़की से प्यार करते थे. एक दिन कॉलेज के नोटिस बोर्ड पर उसी लड़की की मौत की सूचना पढ़ कर निदा का टूट गया. वे इस दर्द को शब्दों से जाहिर करना चाहते थे लेकिन उनके पास गम तो बहुत था लेकिन इस दर्द को बयां करने के लिए जरुरी हुनर और शब्दों की कमी थी. जिस वजह से वे अपने दर्द को शब्दों में नहीं ढाल पा रहे थे. शायद इसी लिए निदा फ़ाज़ली ने लिखा था कि-

अकेले ग़म से नई शाइरी नहीं होती

ज़बान-ए-'मीर' में 'ग़ालिब' का इम्तिज़ाज भी हो

(इम्तिज़ाज= मिलावट, मिश्रण)

उनका पारिवारिक जीवन भी कई उतार-चढ़ावों से भरा रहा। निदा के पिता खुद शायर थे। बचपन में वह ग्‍वालियर में रहे। वहीं पढ़ाई हुई। 1958 में वहीं से पीजी किया। भारत-पाकिस्तान विभाजन के बाद दंगों से तंग आ कर उनके माता-पिता पाकिस्तान जा के बस गए, लेकिन निदा नहीं गए। जब निदा फ़ाज़ली के पिता की मृत्यु हुई तो इस दुःख और कमी को उन्होंने शब्दों में ढाल कर एक नज्म लिखी. इस नज्म में बाप बेटे का प्यार, अपनों के खोने का गम, कभी न मिल पाने की टीस साफ़ तौर पर दिखती है.

तुम्हारी कब्र पर मैं

फ़ातेहा पढ़ने नही आया,

मुझे मालूम था, तुम मर नही सकते

तुम्हारी मौत की सच्ची खबर

जिसने उड़ाई थी, वो झूठा था,

वो तुम कब थे?

कोई सूखा हुआ पत्ता, हवा मे गिर के टूटा था ।

मेरी आँखे

तुम्हारी मंज़रो मे कैद है अब तक

मैं जो भी देखता हूँ, सोचता हूँ

वो, वही है

जो तुम्हारी नेक-नामी और बद-नामी की दुनिया थी ।

कहीं कुछ भी नहीं बदला,

तुम्हारे हाथ मेरी उंगलियों में सांस लेते हैं,

मैं लिखने के लिये जब भी कागज कलम उठाता हूं,

तुम्हे बैठा हुआ मैं अपनी कुर्सी में पाता हूं |

बदन में मेरे जितना भी लहू है,

वो तुम्हारी लगजिशों नाकामियों के साथ बहता है,

मेरी आवाज में छुपकर तुम्हारा जेहन रहता है,

मेरी बीमारियों में तुम मेरी लाचारियों में तुम |

तुम्हारी कब्र पर जिसने तुम्हारा नाम लिखा है,

वो झूठा है, वो झूठा है, वो झूठा है,

तुम्हारी कब्र में मैं दफन तुम

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