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भयानक रस : भय की अभिव्यक्ति के भाव को व्यक्त करने वाला रस

भयानक रस परिभाषा — भयप्रद वस्तु या घटना देखने सुनने अथवा प्रबल शत्रु के विद्रोह आदि से भय का संचार होता है। यही भय स्थायी भाव जब विभाव, अनुभाव और संचारी भावों में परिपुष्ट होकर आस्वाद्य हो जाता है तो वहाँ भयानक रस होता है।

उदाहरण -

"एक ओर अजगरहि लखि, एक ओर मृगराय।

विकल बटोही बीच ही, परयों मूरछा खाय।।"

यहाँ पथिक के एक ओर अजगर और दूसरी ओर सिंह की उपस्थिति से वह भय के मारे मूर्छित हो गया है। यहाँ भय स्थायी भाव, यात्री आश्रय, अजगर और सिंह आलम्बन, अजगर और सिंह की भयावह आकृतियाँ और उनकी चेष्टाएँ उद्दीपन, यात्री को मूर्छा आना अनुभाव और आवेग, निर्वेद, दैन्य, शंका, व्याधि, त्रास, अपस्मार आदि संचारी भाव हैं, अत: यहाँ भयानक रस है।

निम्न लिखित कुछ कविताएं भयानक रस के उधारण है :-

(i) "डायन सरकार"

डायन है सरकार फिरंगी, चबा रही हैं दाँतों से, 

छीन-गरीबों के मुँह का है, कौर दुरंगी घातों से ।

हरियाली में आग लगी है, नदी-नदी है खौल उठी,

भीग सपूतों के लहू से अब धरती है बोल उठी,

इस झूठे सौदागर का यह काला चोर-बाज़ार उठे,

परदेशी का राज न हो बस यही एक हुंकार उठे ।।

— रांगेय राघव

व्याख्या : यहां कवि कहता है कि, फिरंगी सरकार डायन बनकर हम सब को चबा रही है। गरीबों से रोटी का टुकड़ा छीन रही है। खेतों में आग लग गई है। नदी भी खौलने लगी है। अपने बच्चों के खून से धरती भी बोल उठी है कि, झूठे सौदागर का यह काला बाजार यहां से चला जाए। हर तरफ यही आवाज है कि, परदेसी लोगों का यहां राज ना हो।

(ii) "अपनी असुरक्षा से"

देश की सुरक्षा यही होती है

कि बिना जमीर होना ज़िन्दगी के लिए शर्त बन जाए

आँख की पुतली में हाँ के सिवाय कोई भी शब्द

अश्लील हो

और मन बदकार पलों के सामने दण्डवत झुका रहे

तो हमें देश की सुरक्षा से ख़तरा है ।

हम तो देश को समझे थे घर-जैसी पवित्र चीज़

जिसमें उमस नहीं होती

आदमी बरसते मेंह की गूँज की तरह गलियों में बहता है

गेहूँ की बालियों की तरह खेतों में झूमता है

और आसमान की विशालता को अर्थ देता है

हम तो देश को समझे थे आलिंगन-जैसे एक एहसास का नाम

हम तो देश को समझते थे काम-जैसा कोई नशा

हम तो देश को समझते थे कुरबानी-सी वफ़ा

लेकिन गर देश

आत्मा की बेगार का कोई कारख़ाना है

गर देश उल्लू बनने की प्रयोगशाला है

तो हमें उससे ख़तरा है

गर देश का अमन ऐसा होता है

कि कर्ज़ के पहाड़ों से फिसलते पत्थरों की तरह

टूटता रहे अस्तित्व हमारा

और तनख़्वाहों के मुँह पर थूकती रहे

क़ीमतों की बेशर्म हँसी

कि अपने रक्त में नहाना ही तीर्थ का पुण्य हो

तो हमें अमन से ख़तरा है

गर देश की सुरक्षा को कुचल कर अमन को रंग चढ़ेगा

कि वीरता बस सरहदों पर मर कर परवान चढ़ेगी

कला का फूल बस राजा की खिड़की में ही खिलेगा

अक़्ल, हुक्म के कुएँ पर रहट की तरह ही धरती सींचेगी

तो हमें देश की सुरक्षा से ख़तरा है ।

— पाश

व्याख्या : कवि कहता है इस देश की सुरक्षा यही रह गई है कि, बिना जमीर के जीना शर्त बन गई है। हम देश को घर जैसी पवित्र जगह समझते थे। अब उसमें वह बात नहीं रही। देश एक एहसास था। कुर्बानी वाली वफा समझते थे। परंतु देश उल्लू बनाने की प्रयोगशाला बन गया है। देश की शांति कर्ज के पहाड़ों से गिरते हुए पर पत्थरों की तरह हो गई है। तनख्वाओ के मुंह पर महंगाई की हंसी उड़ती है। देश की सुरक्षा को कुचलकर अमन का रंग चढ़ेगा। कला का फूल सिर्फ राजाओं के महलों में ही खिलेगा। हमें तो अब देश की सुरक्षा से खतरा है।

(iii) "कैदी और कोकिला" की कुछ पंक्तियां 

क्या गाती हो?

क्यों रह-रह जाती

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