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बहादुर शाह जफ़र हिन्दुस्तान के आखिरी मुग़ल बादशाह के साथ साथ एक अज़ीम शायर भी थे

लगता नहीं है दिल मेरा उजड़े दयार में,

किस की बनी है आलम-ए-नापायेदार में

बुलबुल को बागबां से न सैय्याद से गिला

किस्मत में थी कैद लिखी, फ़स्ले बहार में

है कितना बदनसीब "ज़फ़र" दफ़्न के लिये

दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में

ये चंद शेर हिन्दुस्तान के आखिरी मुग़ल बादशाह "बहादुर शाह जफ़र" की आखिरी ग़ज़ल के हैं. बहादुर शाह जफ़र ने ये ग़ज़ल रंगून जेल में लिखी थी. जफ़र की इस ग़ज़ल ने हिंदुस्तान के लोगों के अंदर एक ऐसी चिंगारी भरी कि देश के लोगों ने "मौत का खौफ छोड़कर अंग्रेजो के खिलाफ आजादी के लिए जंग छेड़ दी थी.

बहादुर शाह जफ़र हिन्दुस्तान के आखिरी मुग़ल बादशाह के साथ साथ एक अज़ीम शायर भी थे. 1857 के विद्रोह ने उन्हें जननायक बना दिया था. जहाँ एक ओर उनका नाम "जननायक" के रूप में स्वर्णाक्षरों अंकित हैं वहीँ दूसरी ओर उर्दू अदब के पन्नो में उनका नाम एक अजीम शायर के रूप में मौजूद है.

जब 1857 ई० में में मेरठ से सैनिकों कि बगावत हुई तो क्रांतिकारियों ने मेरठ से दिल्ली तक का क्षेत्र अंग्रेजों से खाली करवा लिया. 10 मई 1857 को क्रांतिकारियों का एक गुट मेरठ से दिल्ली पहुंचा और उन्होंने बहादुर शाह जफ़र से "अंग्रेजो के खिलाफ विद्रोह" में अपना नेतृत्व करने कि गुजारिश की. 

पहले तो बहादुर शाह जफ़र अंग्रेजों के खिलाफ बगावत के लिए तैयार नहीं हो रहे थे. जिसका कारण था कि 1707 ई० में औरगजेब की मौत के बाद से ही मुग़ल सल्तनत का सूरज ढलने लगा था, लेकिन किसी तरह बाद की पीढ़ियों ने "नाम मात्र की बादशाहत" को किसी तरह 150 वर्षों तक और चलाया था, बाद में बहादुर शाह जफ़र भी नाम मात्र के बादशाह बनकर दिल्ली में बैठे हुए थे, उस वक्त उनकी उम्र 80 वर्ष की थी. 

जफ़र अपनी उम्र और नाम मात्र का बादशाह होने की वजह से अंग्रेजों के खिलाफ जाने की हिम्मत नहीं कर पा रहे थे, लेकिन अंततः उन्होंने क्रांतिकारियों की बात मान ली थी जफ़र की रजामंदी पाकर क्रांतिकारियों ने हिंदुस्तान को आज़ाद घोषित करते हुए बहादुर शाह जफ़र को हिन्दोस्तान का बादशा

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