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हिंदी पत्रकारिता के भीष्म पितामह पं. बाबूराव विष्णु पराड़कर – डॉ. रामरक्षा मिश्र विमल

"हमारा उद्देश्य अपने देश के लिए सर्व प्रकार से स्वातंत्र्य-उपार्जन है । हम हर बात में स्वतंत्र होना चाहते हैं । हमारा लक्ष्य है कि हम अपने देश के गौरव को बढ़ावें , अपने देशवासियों में स्वाभिमान संचार करें , उनको ऐसा बनावें कि भारतीय होने का उन्हें अभिमान हो , संकोच न हो | यह अभिमान स्वतंत्रता देवी की उपासना करने से मिलता है । ” – दैनिक ‘आज’ के प्रवेशांक ( 5 सितंबर,1920 ) की इस संपादकीय टिप्पणी के लेखक थे पं बाबूराव विष्णु पराड़कर , जिनकी पत्रकारिता ने राष्ट्रीय जागरण,स्वाधीनता संग्राम तथा स्वातंत्र्योत्तर भारत के नव निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका दी है ।

यद्यपि,भारतीय स्वतंत्रता का श्रेय महात्मा गांधी को जाता है,तथापि पं पराड़कर जैसे स्वतंत्रतापूर्व के पत्रकार उन नींव के पत्थरों में से हैं , जिन्होंने अपने अस्तित्व को मिटाकर स्वतंत्रता का विशाल भवन खड़ा किया था । अपेक्षाकृत साधनहीन होते हुए भी इनकी पत्रकारिता ने देश की स्वतंत्रता का जो संकल्प लिया था उससे रंचमात्र भी अलग न हो सकी । इसी पवित्र ध्येय के लिए तो हिंदी पत्रकार जिए और मरे ।

पं बनारसीदास चतुर्वेदी लिखते हैं कि पूरे पचास वर्ष तक पत्र जगत की निरंतर सेवा करनेवाले किसी दूसरे हिंदी पत्रकार का हमें पता नहीं,और इस विषय में पराड़कर जी निस्संदेह अद्वितीय थे ।1 किंतु,पराड़कर जी की यह पत्रकारिता उनका उद्देश्य न थी,उनका मुख्य उद्देश्य था-क्रांतिकारी दल में सम्मिलित होकर देश सेवा करना । हिंदी बंगवासी में सहायक संपादक का कार्य स्वीकारने के पीछे अपने परिवार का खर्च चलाना और पुलिस की नजरों से बचना ही प्रधान था । वे ‘हितवार्ता’ और ‘भारतमित्र’ के संपादन के साथ-साथ चंदन नगर स्थित क्रांतिकारी दल की गुप्त समिति का काम भी करते थे ।

पत्रकारिता के प्रेरणा स्रोत

हिंदी पत्रकारिता के इस भीष्म पितामह के प्रेरणा स्रोत थे उनके मामा बंगला भाषा के प्रख्यात लेखक सखाराम गणेश देउस्कर । उन्होंने ही पराड़कर जी का राजनीतिक संस्कार किया । मामाजी द्वारा बाल्यकाल में ही बोए गए संस्कारों के बीज तब अनुकूल वातावरण पाकर लहलहाती समृद्ध फसल बन गए,जब आगे चलकर उन्हें लोकमान्य तिलक और योगी अरविंद घोष जैसे महान नेताओं का संपर्क एवं उनके दर्शन के स्वाध्याय का अवसर मिला ।

पत्रकार जीवन

पराड़कर जी का पत्रकारिता के क्षेत्र में पदार्पण सन् 1906 में हिंदी बंगवासी में सहायक संपादक के रूप में हुआ था किंतु उसमें आत्मसंतोष न होने के कारण उन्होंने महान क्रांतिकारी योगी अरविंद घोष के नेशनल कालेज में हिंदी और मराठी का अध्यापन भी शुरू कर दिया । बंगवासी के प्रबंधक को यह बात जँची नहीं और उसने ऐसा करने से मना किया किंतु बंगवासी के माध्यम से कांग्रेस की खिल्ली उड़ानेवाले और कटु आलोचना करनेवाले प्रबंध संपादक की बात यह उग्र राष्ट्रीय व्यक्तित्व भला कैसे सहन कर सकता था ? उन्होंने आत्महनन के मूल्य पर नौकरी करना उचित नहीं समझा और नौकरी छोड़ दी | सन् 1907 में उन्होंने “ हितवार्ता “ का संपादक पद सँभाला । यह पत्र उनके अनुकूल था क्योंकि इसमें उन्हें राजनीतिक विषयों पर गंभीर समीक्षात्मक लेख प्रस्तुत करने का मौका मिलता था ।

“ हितवार्ता “ में रहने के दौरान पराड़कर जी ने नेशनल कालेज का अध्यापन कार्य नहीं छोड़ा,बल्कि उसमें उन्होंने हिंदी अध्यापन के लिए पं अंबिका प्रसाद वाजपेयी को भी बुला लिया था,किंतु जब नेशनल कालेज भी गवर्नमेंट के प्रभाव क्षेत्र में आ गया तो अंततः उन्हें कालेज छोड़ना ही पड़ा । पराड़कर जी के जीवनी लेखक लक्ष्मीशंकर व्यास लिखते हैं कि महर्षि अरविंद घोष का नेशनल कालेज एक प्रकार से तत्कालीन क्रांतिकारियों का एक प्रधान केंद्र बन गया था । पराड़कर जी इस कालेज में हिंदी-मराठी का अध्यापन-कार्य करते थे साथ ही यहाँ उनका क्रांतिदलवालों से भी संपर्क होता था । अध्यापन के समय पराड़कर जी छात्रों को फ्रांस और रूसी क्रांति का इतिहास बताते हुए इस बात पर बल देते थे कि देश के युवकों पर भारतमाता की स्वतंत्रत का भारी उत्तरदायित्व है । हमारा देश परतंत्र है,इसे स्वतंत्र करना चाहिए ।

सन् 1910 में हितवार्ता के प्रकाशन के बंद होने के बाद पराड़कर जी ने भारतमित्र में पं अंबिका प्रसाद वाजपेयी के साथ काम करना शुरू कर दिया । इन दोनों तपस्वियों ने मिलकर भारतमित्र के स्तर को बहुत उन्नत किया था । प्रतिदिन यह पत्र 4000 की संख्या में छपता था । दुर्भाग्यवश उन्ही दिनों कोलकाता के तत्कालीन डिप्टी पुलिस सुपरिंटेंडेंट की हत्या हो गई और 1 जुलाई 1916 को क्रांतिकारी दल में कार्य करने के अपराध में उन्हें साढ़े तीन वर्ष का कारावास हो गया | किन्तु ,प्रमाण के अभाव में जनता के भावी प्रतिकार की आशंका से मजबूर होकर अंग्रेज सरकार ने 1920 में उन्हें जेल से मुक्त कर दिया । भारतमित्र के तत्कालीन संपादक पं. लक्ष्मण नारायण गर्दे ने उनसे भारतमित्र के संपादन हेतु अनुरोध किया किंतु पराड़कर जी ने स्वीकार नहीं किया और काशी चले गए ।

काशी में उन दिनों हिंदी साहित्य की अभिवृद्धि के लिए बाबू शिवराम प्रसाद गुप्त ने ‘ज्ञानमंडल ‘ की स्थापना की थी । उन्होंने पराड़कर जी से अपने प्रकाशन से एक दैनिक पत्र का संपादन- भार उठाने के लिये आग्रह किया और उस आग्रह पर पराड़कर जी ने पुन: अपने पत्रकार रूप को ग्रहण किया । इस प्रकार ‘काशी’ से इनके संपादन में ‘आज’ निकला और बीच में कई बार ‘आज’ से संबंध टूटते रहने के बावजूद इनके पत्रकार- जीवन का अधिक समय ‘आज’ में ही बीता । इनके क

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