
अयोध्या प्रसाद खत्री १९वीं सदी में खड़ी बोली हिंदी के सबसे बड़े योद्धाओं में अग्रणी थे
रेंट लॉ का ग़म करें या बिल ऑफ इन्कम टैक्स का?
क्या करें अपना नहीं है सेंस राइट नाओ-अ-डेज़।
..डार्कनेस छाया हुआ है हिंद में चारों तरफ़
नाम की भी है नहीं बाक़ी न लाइट नाओ-अ-डेज़।
'अयोध्या प्रसाद खत्री'
"अयोध्या प्रसाद जी १९वीं सदी में खड़ी बोली हिंदी के सबसे बड़े योद्धाओं में अग्रणी थे। भारतेंदु खड़ी बोली को गद्य की भाषा तो बना रहे थे लेकिन कविता ब्रजभाषा में ही करते थे। हिंदी को पद्य के अयोग्य मानते थे। खत्री ने खड़ी बोली हिंदी में पद्य का ज़बर्दस्त आंदोलन चलाया। स्वीकृत कराया।"
राहुल देव (पत्रकार, भारतीय भाषाओं का संवर्धन, न्यासी, सम्यक् न्यास)
आज खड़ी बोली और ब्रजभाषा का कोई विवाद नहीं है। ब्रजभाषा उस तरह से अब काव्य भाषा भी नहीं रही। फिर भी, ब्रजभाषा के संदर्भ में यह स्वीकार करना आवश्यक है कि ब्रजभाषा में कविता अपने शिखर तक विकसित हुई है। ठीक उसी तरह, यह भी स्वीकार करना आवश्यक है कि खड़ी बोली भी अब खड़ी बोली नहीं रही, खड़ी बोली भी अब व्यापक अर्थों में हिन्दी है। परन्तु खड़ी बोली जिस रास्ते हिन्दी बनने की दिशा में आगे बढ़ी, वह रास्ता बाबू अयोध्याप्रसाद खत्री का रास्ता है। जो हिन्दी आज गद्य और पद्य दोनों में स्वीकृत है, वह खत्री जी की मुंशी स्टाइल की हिन्दी है। इस मुंशी स्टाइल की हिन्दी के लिए बाबू अयोध्याप्रसाद खत्री ने क्या-क्या न किया, उन पर किस-किसने न हँसा, वे किसका-किसका विरोध न सहे! मुज़फ्फरपुर वाले ‘पेशकार साहेब’ जब बनारस खड़ी बोली में कविता के लिए साहित्य के मठाधीशों के पास जाते तो बनारस वाले ‘खड़ी बोली वाला’ कहकर उनका उपहास करते! खत्री जी सब के उपहासों और विरोधों का सामना करते हुए खड़ी बोली के आन्दोलन को ओढ़ते-बिछाते रहे। इस खड़ी बोली की दीवानगी ने उन्हें भिखारी बना दिया था। आज जब उनकी खड़ी बोली ही आगे बढ़ी तथा उनके विरोधी पीछे छूट गये और आज जब खड़ी बोली अखिल भारतीय भाषा हिन्दी का रूप अख़्तियार कर चुकी है, तब एक बार फिर इस बात का मूल्यांकन बेहद जरूरी जान पड़ता है कि जिस परिमाण में खत्री जी ने हिन्दी के लिए अपना सबकुछ लुटाया, क्या हम उस अनुपात में खत्री जी को कभी हिन्दी में जगह दे सकेंगे!
आमतौर पर खड़ी बोली हिन्दी का जनक भारतेंदु हरिश्चंद्र को ही समझा जाता है। निश्चित ही भारतेंदु हरिश्चन्द्र को खड़ी बोली की गद्य-भाषा का स्वरुप स्थिर करने और गद्य की विविध विधाओं को स्थापित करने का श्रेय है। इसलिए उन्हें भारतीय नवजागरण का अग्रदूत भी कहा जाता है। खड़ी बोली के विकास में कलकत्ता का फोर्ट विलियम कॉलेज, जॉन गिलक्राइस्ट, लल्लू लाल, सदल मिश्र, मुंशी सदासुखलाल, इंशाअल्ला खां, राजा शिव प्रसाद ‛सितारे हिन्द’, राजा लक्ष्मण सिंह से लेकर भारतेंदु और उनके मंडल के लेखकों, भारतेंदु मंडल से बाहर के लेखकों और फिर उनके बाद के भी लेखकों को बखूबी याद किया जाता है। परन्तु अयोध्याप्रसाद खत्री को हिन्दी में लगभग भुला ही दिया गया है। जबकि अयोध्याप्रसाद खत्री के बिना खड़ी बोली आन्दोलन का इतिहास अधूरा है। उन्हें भुलाने में उनके समकालीनों को उतना दोष नहीं दिया जा सकता क्योंकि उनके समकालीनों ने उनका जोरदार विरोध करके ही सही, उन्हें मान्यता तो दी ही थी। परन्तु उनके तुरन्त बाद की पीढ़ी के इतिहास लेखकों को जिनके ऊपर आधुनिकता के आविर्भाव की अन्तर्धाराओं का गहन अवलोकन करने का दायित्व था, उन्होंने हिन्दी के प्रति खत्री जी की निष्ठा, दूरदर्शिता और योगदान की इतनी उपेक्षा की कि अभी तक अयोध्याप्रसाद खत्री हिन्दी पाठकों के सामान्य-बोध का हिस्सा नहीं बन सके हैं। अब जब खड़ी बोली गद्य की तरह खड़ी बोली का पद्य भी आधुनिक हिन्दी में ऊंचे आसन पर विराजमान है तब खड़ी बोली हिन्दी, ख़ासकर हिन्दी पद्य के विकास की दिशा में अयोध्याप्रसाद खत्री के किये कार्यों को सही परिप्रेक्ष्य में देखने की आवश्यकता है।
जब खड़ी बोली भारतेंदु हरिश्चंद्र के हाथों में आकर गद्य-भाषा के रुप में आकार ग्रहण कर रही थी तब गद्य जैसी महत्व की चीज नयी थी। नयेपन के साथ यह गद्य काम की भी चीज लग रहा था। इसलिए गद्य-भाषा के रुप में खड़ी बोली को गर्व के साथ अपनाया गया। ठीक इसके विपरीत व्यवहार खड़ी बोली के पद्य के साथ हुआ। पद्य नयी चीज नहीं था, सम्भवतः इसीलिए पद्य-भाषा के रुप में खड़ी बोली को स्वीकृति नहीं मिल रही थी। अवधी और ब्रजभाषा में पद्य इतनी ऊँचाई पा चुका था कि अवधी और ब्रजभाषा के गर्व और मोह से निकलना कठिन लग रहा था। शायद इसलिए भी खड़ी बोली गद्य के जन्मदाता भारतेंदु हरिश्चंद्र आदियों ने खड़ी बोली में पद्य रचने से हाथ खड़ा कर लिया होगा और गद्य के लिए खड़ी बोली तथा पद्य के लिए अवधी और ब्रजभाषा की दोहरी नीति अपना ली होगी। गद्य और पद्य की भिन्न भाषा की इस नीति का विरोध हुआ। ब्रजभाषा से अलग पद्य की अपनी भाषा हिन्दी के पक्ष में आन्दोलन खड़ा हुआ। ब्रजभाषा के पैरोकारों ने इसका जमकर विरोध किया। परन्तु इस आन्दोलन की धार कभी कमजोर नहीं हुई क्योंकि इसका झंडा बाबू अयोध्याप्रसाद खत्री के हाथों में था।
बाबू अयोध्याप्रसाद खत्री के साथ सदी गुजर गयी लेकिन उनके बाद हिन्दी का कोई ऐसा दीवाना नहीं हुआ। उन्होंने खड़ी बोली के लिए बहुत त्याग किया था। उनके निधन के बाद ‘सरस्वती’ में श्री पुरुषोत्तमप्रसाद वर्मा ने लिखा कि ‘खड़ी बोली के प्रचार के लिए खत्री जी ने इतना द्रव्य खर्च किया कि राजा महाराजा भी कम करते हैं।’ उन्होंने खड़ी बोली के पद्यों के संकलन अपने रुपयों से छपवाया और उसका बिना मूल्य वितरण भी किया। वे मुज़फ्फरपुर में ब्राम्हणटोली में रहते थे। उन्होंने ब्राम्हणों के बीच यह घोषणा कर दी थी कि जो पण्डित अपने यजमानों के यहाँ सत्यनारायण कथा खड़ी बोली में बाँचेंगे, उन्हें हर कथा-वाचन के लिए दस रुपये देंगे, बशर्ते उन्हें अपने यजमानों से कथा-वाचन का प्रमाण-पत्र लाना होगा। जो ऐसा करते, उन्हें वे स्वयं दस रुपये दिया करते थे। खत्री जी ने कर्मकांड की अनेक पुस्तकों का खड़ी बोली में अनुवाद कराया था और उन पुस्तकों का निःशुल्क वितरण भी किया।
खड़ी बोली पद्य के प्रति उनका ऐसा अनुराग था कि ‘चंपारण-चंद्रिका’ में उन्होंने एक सूचना दी कि जो श्री रामचंद्र के यश का खड़ी बोली में पद्यबद्ध वर्णन करेगा उसे प्रति पद्य एक रुपया दिया जायेगा। रामचरितमानस का भी खड़ी बोली में अनुवाद करने के लिए प्रति दोहे और चौपाई एक रुपया देने की घोषणा की थी। वे खड़ी बोली में कविता करनेवाले को हर कविता पर पाँच रुपये का पुरस्कार अपने पास से देते थे। खड़ी बोली पद्य के प्रति खत्री जी के अदम्य अनुराग का ही नतीजा है कि आज हिन्दी गद्य के बराबर हिन्दी कविता अपने मुकाम पर खड़ी है। जैसे हिन्दी गद्य को भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अपनी उंगली पकड़कर आगे बढ़ाया, वैसे ही हिन्दी पद्य को अयोध्याप्रसाद खत्री ने आगे बढ़ाया है। परन्तु इसका श्रेय कवियों और संपादकों को मिला, जिसके वाज़िब हक़दार बाबू अयोध्याप्रसाद खत्री हैं।
भारतेंदु ने खड़ी बोली में गद्य तो बहुत लिखा पर कविता ब्रजभाषा में ही की। वे खड़ी बोली को कविता की भाषा नहीं बना सके। अयोध्याप्रसाद खत्री ने 1888 ई. में ‘खड़ी बोली आन्दोलन’ नाम की एक किताब प्रकाशित की, जिसमें उन्होंने बल देकर कहा कि अबतक की कविता ब्रजभाषा की कविता है, खड़ी बोली की कविता नहीं है। जो यह मानकर चलते थे कि खड़ी बोली में कविता हो ही नहीं सकती, उन्हें कवियों से खड़ी बोली में कविता लिखवाकर दिखाया कि खड़ी बोली में कविता हो सकती है और अच्छी कविता हो सकती है। उनकी इस राय की ब्रजभाषा-काव्य के प्रति मोह रखनेवालों ने जमकर विरोध किया। परन्तु खत्री जी इस बात को कायदे से समझ रहे थे कि जबतक पद्य यानी कविता की भाषा खड़ी बोली नहीं होगी तबतक उत्तर भारत की असली स्वाभाविक भाषा का स्वरूप स्थिर नहीं हो सकता। आज जिसे व्यापक अर्थों में हिन्दी कहते हैं, उस समय इसे ही खड़ी बोली कहते थे। इसलिए खत्री जी अवधी और ब्रजभाषा को हिन्दी नहीं मानते थे। वे अवधी और ब्रजभाषा को ‘भाखा’ कहते थे। खड़ी बोली पद्य का प्रचार करते हुए वे कहते थे कि ‘अभी हिन्दी में कविता हुई कहाँ? सूर, तुलसी, बिहारी आदि ने जिसमें कविता की है, वह तो ‘भाखा’ है, हिन्दी नहीं।’ इसलिए खत्री जी ने हिन्दी में कविता के पक्ष में एक जोरदार आन्दोलन खड़ा किया।
खत्री जी के हिन्दी कविता के आन्दोलन को देखें तो इसके दो दौर हैं, स्वयं खत्री जी ने भी इसे स्वीकार किया है। पहला दौर 1877 से 1887 के बीच का है। इस दौर की शुरुआत 1877 ई. में ‘हिन्दी व्याकरण’ लिखने के साथ होती है। इस व्याकरण की रचना इस मान्यता के साथ की गयी थी कि हिन्दी और उर्दू में सिर्फ लिपि का फ़र्क है। यदि उर्दू को फ़ारसी लिपि में न लिखी जाये तो उर्दू भी हिन्दी ही है। यह मात्र 36 पृष्ठों की पुस्तक है जिसका मुद्रण बिहारबंधु प्रेस, बांकीपुर, पटना से हुआ था। इसी क्रम में 1887 ई. में हिन्दी के छंदशास्त्र पर उनकी दूसरी पुस्तक ‘मौलवी स्टाइल की हिन्दी का छंद भेद’ प्रकाशित हुई। इसमें मौलवी स्टाइल की हिन्दी को पंडित स्टाइल की हिन्दी से बेहतर घोषित किया गया है। खत्री जी की तीसरी पुस्तक अलंकारशास्त्र पर 1887 ई. में ‘मौलवी साहब का साहित्य’ शीर्षक से आया। इस पुस्तक में अरबी साहित्य परम्परा से प्राप्त उन अलंकारों के लक्षण-उदाहरण हैं जो उर्दू काव्य में घुलमिल गये