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श्रीलाल शुक्ल : साहित्य का एक युग

गालियों का मौलिक महत्त्व 

आवाज की ऊंचाई में है। 

-श्रीलाल शुक्ल


कोई भी लेखक अपनी कृति से ख्याति तभी हासिल कर पाता है जब वो आम जनता के बिच चर्चा का विषय बना हो, जिसके लिए आवश्यक है लेखनी में सत्यता होना जो वास्तव में आम जीवन से जुड़ा हो। आज हम ऐसे ही एक महान लेखक की बात कर रहे हैं जिन्होंने अपनी लेखनी में सिस्टम और व्यवस्ता के धागो को परत दर परत उधेरा। देश की आज़ादी के बाद जनता की स्थिति को लिखा और राज दरबारी जैसे कालजयी हिंदी साहित्य को भेंट की । हम बात कर रहे हैं प्रख्यात उपन्यासकार श्रीलाल शुक्ल जिन्होंने अपने अनुभवों को शब्दों से जरिए उपन्यासों में जिवंत रखा और ख्याति प्राप्त की। उनका लिखा सरल एवं सहज था और उससे भी ज़्यादा किसी बनावटी कहानी से प्रेरित न होकर सत्य पर आधारित था। श्रेष्ठ उपन्यासकार होने के साथ साथ एक कुशल व्यंगकार भी थे। वह समकालीन कथा-साहित्य में उद्देश्यपूर्ण व्यंग्य लेखन के लिए विख्यात थे। श्रीलाल शुक्ल का व्यक्तित्व अपने आप में मिसाल था। वे अध्यनशील व् मननशील थे। श्रीलाल शुक्ल अंग्रेज़ी, उर्दू, संस्कृत और हिन्दी भाषा के विद्वान थे।


जीवन

प्रख्यात लेखक श्रीलाल जी का जन्म 31 दिसंबर, 1925 को लखनऊ के ही मोहनलाल गंज के पास अतरौली गाँव में हुआ था। उनके परिवार में पढाई-लिखे का खासा महत्त्व था और एक पुरानी परंपरा थी फलस्वरूप केवल १३-१४ साल की उम्र से ही श्रीलाल जी संस्कृत और हिंदी में कविता-कहानी लिखने लगे थे। उन्होंने 1947 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक परीक्षा पास की और बाद में 1949 में राज्य सिविल सेवा से नौकरी शुरू की।1983 में भारतीय प्रशासनिक सेवा से निवृत्त हुए। शुक्ला जी का पहला उपन्यास "सूनी घाटी का सूरज" 1957 में प्रकाशित हुआ वहीं उनका सबसे लोकप्रिय उपन्यास राग दरबारी 1968 में प्रकाशित हुआ जिसका पन्द्रह भारतीय भाषाओं के अलावा अंग्रेजी में भी अनुवाद प्रकाशित हुआ। 


ग्रामीण जीवन पर चिंतन :

अपनी लेखनी में उन्होंने ग्रामीण जीवन को विशेष रूप से आधार बनाया देश की आजादी के बाद आए विनाश को लिखा। गहराई से छान बिन की विश्लेषण किया और अपनी रचनाओं में लिखा। श्रीलाल शुक्ल ने साहित्य और जीवन के प्रति अपनी एक सहज धारणा का उल्लेख करते हुए कहा है कि -

कथालेखन में मैं जीवन के कुछ मूलभूत नैतिक मूल्यों से प्रतिबद्ध होते हुए भी यथार्थ के प्रति बहुत आकृष्‍ट हूँ। पर यथार्थ की यह धारणा इकहरी नहीं है, वह बहुस्तरीय है और उसके सभी स्तर - आध्यात्मिक, आभ्यंतरिक, भौतिक आदि जटिल रूप से अंतर्गुम्फित हैं।

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