राजनीति के गलियारों में मत जाना  नागिन अपने बच्चों को खा जाती है - बुद्धिसेन शर्मा's image
337K

राजनीति के गलियारों में मत जाना नागिन अपने बच्चों को खा जाती है - बुद्धिसेन शर्मा

साहित्‍य जगत के दिग्‍गजों में से एक माने जाने वाले वरिष्‍ठ कवि बुद्धिसेन शर्मा (80 वर्षीय) का निधन हो गया है। भारतीय साहित्‍य को ऊंचाई प्रदान करने में उनका महत्वपूर्ण योगदान माना जाता है। उनकी कलम से लिखे गए साहित्य में से कुछ आपके लिए:

दोहे

मछली कीचड में फँसी सोचे या अल्लाह

आखिर कैसे पी गए दरिया को मल्लाह


कथरी ओढ़े सो गया रात अशरफी लाल

रहा देखता ख़्वाब में एक कटोरी दाल


चूहे रोटी के लिए फँसकर देते जान

नज़र नहीं आता मगर कोई चूहेदान


गज़ल - 1

दिये बुझाती शोलों को भडकाती है

आँधी को भी दुनियादारी आती है


रूप रंग तो अलग-अलग हैं फूलों के

पर सब में तेरी ही खुश्बू आती है


राजनीति के गलियारों में मत जाना

नागिन अपने बच्चों को खा जाती है


पिसने से पहले अनाज के दानों को

चक्की कैसे-कैसे नाच नचाती है


गज़ल - 2

न निकलना था न मुश्किल का कोई हल निकला

जो समंदर में था वही बादल से जल निकला


ज़िंदगी भर के दुखों का शिला जन्नत में मिला

बीज बोया था कहाँ और कहाँ फल निकला


अब ये आलम है कि रस्ते पे लुटा बैठा हूँ

मैंने दोना जिसे समझा वो पीतल निकला

सबसे बढ़कर वही होशियार बना फिरता है

सबसे बढ़कर वही शहर में पागल निकला


इन खरतनाक दरिंदों से बचाना हमको

गाँव से आये तो ये शहर भी जंगल निकला


आंधियाँ मुझको बुझाने पे तुली थीं लेकिन

जिसने बुझने से बचाया तेरा आँचल निकला


गज़ल - 3

हवा का पाके इशारा जो उड़ने लगते हैं

वो खुश्क तिनके नहीं लोग इस सदी के हैं


तमाम दिन जो कड़ी धूप में झुलसते हैं

वही दरख़्त मुसाफिर को छाँव देते हैं


दियासलाई का इन पर असर नहीं होगा

ये नम हवाओं में सीले हुए पटाखे हैं


किसी से कोई बदलता नहीं है अपना ख्याल

हमारे शहर में जैसे सब ठठेरे हैं


दिलों में सदियों पुराना गुबार है महफूज़

मगर जबाँ पे मोहब्बत के फूल खिलते हैं


न जाने आगे अभी और क्या लिखा होगा

अभी किताब में बाक़ी बहुत से पन्ने हैं


गज़ल - 4

क्या जरूरी है कि हो त्यौहार की हर रोशनी

आग लगने से भी हो जाती है अक्सर रोशनी


खिड़कियों को बंद रखने का मजा हम पा गए

देंगे दस्तक फिर कहीं बाहर ही बाहर रोशनी


शर्त ये है सौंप दें हम अपनी बीनाई उन्हें

फिर तो वो देते रहेंगे ज़िंदगी भर रौशनी


रास्ता तो एक ही था ये किधर से आ गए

बिछ गयी क्यों चादर इनके नीचे बनके रोशनी


अपनी साजिश में हवाएं हो गयीं फिर कामयाब

रह गयी फिर बादलों के बीच फँसकर रोशनी


खुद चमकते हैं हमेशा रात की पाकर पनाह

ये सितार क्या भला बांटेंगे घर-घर रोशनी


हम दिलों से दिल मिलाते हैं निगाहों से निगाह

रोशनी से कर रहे हैं हम उजागर रोशनी


गज़ल - 5

अजब दहशत में है डूबा हुआ मंजर जहाँ मैं हूँ

धमाके गूंजने लगते हैं रह-रहकर जहाँ मैं हूँ


कोई चीखे तो जैसे और बढ़ जाता है सन्नाटा

सभी के कान हैं हर आहट पर जहाँ मैं हूँ


खुली हैं खिडकियां फिर भी घुटन महसूस होती है

गुजरती है मकानों से हवा बचकर जहाँ मैं हूँ


सियासत जब कभी अंगडाइयाँ लेती है संसद में

क़यामत नाचने लगती है सड़कों पर जहाँ मैं हूँ


समूचा शहर मेरा जलजलों कि ज़द पे रखा है

जगह से हट चुके हैं नींव के पत्थर जहाँ मैं हूँ


कभी मरघट की खामोशी कभी मयशर का हँगामा

बदल लेता है मौसम नित नया तेवर जहाँ मैं हूँ


घुलेगी पर हरारत बर्फ में पैदा नहीं होगी

वहाँ हर आदमी है बर्फ से बदतर जहाँ मैं हूँ


पराये दर्द से निस्बत किसी को कुछ नहीं लेकिन

जिसे देखो वही बनता है पैगम्बर जहाँ मैं हूँ


सदन में इस तरफ हैं लोग गूँगे औ उस तरफ बहरे

नहीं मिलता किसी को प्रश्न का उत्तर जहाँ मैं हूँ


मजा लेते हैं सब एक-दूसरे के जख्म गिन-गिनकर

मगर हर शख्स है अपने लहू में तर जहाँ मैं हूँ


नीचे गिरना है तो एकबारगी गिर क्यूँ नहीं जाते

लटकती है सदा तलवार क्यूँ सर पर जहाँ मैं हूँ


गज़ल - 6

Tag: poetry और4 अन्य
Read More! Earn More! Learn More!