
"दो जून की रोटी": सिर्फ़ एक कहावत नहीं, एक हकीकत की तस्वीर
हम में से कई लोगों ने अपने बड़ों से यह कहते सुना होगा—
"दो जून की रोटी भी नसीब नहीं होती",
"दो जून की रोटी मिल जाए, वही बहुत है",
या फिर
"दो जून की रोटी का भी मुश्किल से इंतज़ाम होता है।"
आज तारीख है 2 जून, और इस मौके पर एक सवाल ज़रूरी हो जाता है—आख़िर "दो जून की रोटी" का मतलब क्या है? क्यों पीढ़ियों से यह कहावत हमारे समाज, हमारी भाषा और हमारी सोच का हिस्सा बनी हुई है?
क्या है "दो जून की रोटी" का असल मतलब?
‘दो जून की रोटी’ दरअसल जीवन की बुनियादी ज़रूरत—भोजन—का प्रतीक बन गई है। इसमें ‘जून’ का मतलब महीने से नहीं, बल्कि अवधी भाषा से लिया गया एक शब्द है, जिसका अर्थ होता है—समय।
इसलिए 'दो जून की रोटी' का सही अर्थ है—दिन में दो समय का भोजन, यानी सुबह और शाम की रोटी।
कहावत यह बताती है कि कई बार दो वक्त का भोजन जुटाना भी मुश्किल हो जाता है। ये शब्द गरीबी, संघर्ष और मेहनत के उस दौर को बयां करते हैं जहाँ इंसान की सबसे बड़ी प्राथमिकता सिर्फ पेट भरना होता है।
क्यों बनी यह कहावत इतनी मशहूर?
भारत जैसे देश में, जहाँ एक बड़ी आबादी अब भी गरीबी रेखा से नीचे जीवन बिता रही है, दो वक्त की रोटी पाना आज भी एक संघर्ष है। यही कारण है कि यह कहावत सिर्फ ज़ुबान पर नहीं, बल्कि लोगों की हकीकत