
॥ श्री लक्ष्मीजी सदा सहाय॥
हम फर्म बाबूलाल छोटेलाल के वर्तमान मालिक अपनी प्रसिद्ध फर्म की एक नई शाखा खोल रहे हैं.
इस शाखा का नाम ‘गोबरधनदास कॉलेज’ होगा.
जैसा कि विश्व-विदित है, गोबरधनदास हमारे पूज्य पिता थे. वे अब इस असार संसार में नहीं हैं, जिससे हमारी फर्म के सिवा बाकी सब निस्सार हैं.
हम जानते हैं कि शिक्षा के धन्धे में उतना फायदा नहीं है, जितना सीमेन्ट या चीनी के धन्धे में. इसलिए शिक्षा की एक दुकान खोलना, व्यापारी भाई हमारी बेवकूफी ही समझेंगे. वे कहेंगे कि कॉलेज क्यों खोलते हो? उसी पैसे से चीनी का स्टॉक क्यों नहीं भर लेते?
उनका कहना भी ठीक है. पर हम थोड़ी दार्शनिक भावना भी रखते हैं.
नर-देह चौरासी कोटि योनियों के बाद मिलती है—ऐसा कथा में भी आता है. इसलिए जीवन में स्वार्थ और परमार्थ दोनों साधने चाहिए. परमार्थ क्या है? कोई ऐसा काम करना, जिससे लोग हमें दानी, त्यागी और समाज-सेवक समझें. इससे यश बढ़ता है. यश ही परमार्थ है. हमें एक काम ऐसा जरूर करना चाहिए, जिससे नाम अमर रहे.
हमारे दिवंगत पिताजी की अमर होने की बड़ी लालसा थी. पर वे अपने जीवन-काल में इसका प्रबन्ध नहीं कर सके, क्योंकि वे फर्म के काम में हमेशा व्यस्त रहे. यह भार अब हमारे सिर पर है. हम पिताजी को अमर करना चाहते हैं. पहले हम हर गर्मी में प्याऊ खुलवा देते थे. लोग स्टेशन के पास के चौराहे की
‘श्री गोबरधनदास प्याऊ’ को भूले न होंगे. पर हमने देखा कि प्याऊ से स्वर्गीय पिताजी का नाम सिर्फ गर्मी के महीनों में ही जीवित रहता है. बाकी दस महीने वे भुला दिए जाते हैं. जो गर्मी में रोज हमारी प्याऊ का पानी पीकर जिंदा रहते हैं, वे भी सर्दियों में याद नहीं रखते कि वैशाख में हमारे पिताजी ने उन पर अहसान किया था. लोग बड़े कृतघ्न हैं.
प्याऊ से पिताजी बारहों महीने और सैकड़ों साल अमर नहीं रह सकते, यद्यपि इसमें खर्च कम बैठता है. पर किफायत से कहीं अमरता मिली है! हमने सोचा कि उनके नाम से एक धर्मशाला बनवा दें. जब तक इमारत रहेगी, तब तक तो उनका नाम रहेगा ही. अगर कालान्तर में जमीन में समा गई, तो भविष्य के पुरातत्त्ववेत्ता उसे खोद निकालेंगे और पिताजी का नाम हमेशा के लिए इतिहास में चला जाएगा. पर कुछ सयानों ने समझाया कि समाजवाद का बड़ा हल्ला हो रहा है. आगे ज़माना खराब आ रहा है. अगर समाजवाद हो गया, तो कोई दीन-दुखी या भिखारी नहीं रहेगा. तब तुम्हारी धर्मशाला में ठहरेगा कौन? और कौन तुम्हारे पिताजी का नाम स्मरण करेगा?
आखिर बहुत सोच-विचार के बाद हमने कॉलेज खोलने का निश्चय किया है.
कॉलेज खोलने से हमारे परिवार पर लगा एक कलंक भी मिट जाएगा. हमारे पूज्य पिताजी पढ़े-लिखे नहीं थे. यह बड़े शर्म की बात है कि जिसने इस फर्म का इतना विकास किया, वह बेपढ़ा था. पर जब आगामी पीढ़ियां उनके नाम का कॉलेज देखेंगी, तो यही समझेंगी कि गोबरधनदास बीसवीं शताब्दी के कोई महान विद्वान या शिक्षा-शास्त्री रहे होंगे. तभी तो उनके नाम से लोगों ने कॉलेज खोला था. यह लाभ धर्मशाला या अनाथालय से नहीं मिल सकता था.
इस कॉलेज की स्थापना के लिए हमने एक लाख रुपए का दान किया है. यह रहस्य कम लोग ही समझेंगे के वास्तव में हमारी गांठ से चालीस हजार ही गए हैं. साठ हजार तो इनकम-टैक्स के यों भी जाते. चालीस हजार में एक लाख के दान का श्रेय खरीद लेना, हमारे पिताजी की स्मृति के अनुकूल ही हुआ.
हम दूसरे व्यापारी भाइयों के पास गए और उनसे कहा कि हमारे पिताजी को अमर बनाने के कार्य में आप लोग भी मदद दें. उन्होंने भी सहर्ष पैसा दिया, क्योंकि आज हमारे पिता का काम अटका है, तो कल उनके बाप का अटक सकता है.
इस तरह तीन लाख रुपए इकट्ठे करके हम शिक्षा-मंत्री के पास गए. शिक्षा-मंत्री के प्रपितामह हमारे प्रपितामह की दुकान पर मुनीम थे. जब वे इस सम्बन्ध को भूलने लगते हैं, तब हम उन्हें याद दिला देते हैं. पिछले चुनाव में हमने अपनी जाति के सब वोट शिक्षा-मंत्री को दिला दिए थे. हमने उनके सामने पिताजी को अमर बनाने की योजना रखकर कहा कि इसमें कुछ रुपए घटते हैं.
शिक्षा-मंत्री ने कहा कि वे तो मेरे भी पिता-तुल्य थे. मुझे फिर उसी क्षेत्र से चुनाव लड़ना है, इसलिए उनका आशीर्वाद चाहिए. मैं तो खुद उन्हें अमर करने की कोशिश में था और उन