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महाकाव्य पद्मावत!!

हाट बाट सब सिंघल जहँ देखहु तहँ रात ।

धनि रानी पदमावति जेहिकै ऐसि बरात ॥


मलिक मोहम्मद जायसी द्वारा रचित महाकाव्य एक प्रेम कथा है जो रत्नसेन और पद्मावती की प्रसिद्ध ऐतिहासिक कथा पर आधारित है। यह हिन्दी साहित्य के अन्तर्गत सूफी परम्परा का प्रसिद्ध महाकाव्य है जिसकी लेखनी दोहे और चौपाई में लिखित हैं। बात करें इसकी भाषा शैली की तो इसकी भाषा शैली अवधि है। दोहों की संख्या 653 है जो चौपाई की प्रत्येक सात अर्धालियों के बाद लिखित है। बात करें इसके रचना काल की तो जायसी स्वयं लिखते हैं कि उन्होंने 'पद्मावत' की रचना 927 हिजरी में प्रारंभ की।इस महाकाव्य में कुल 57 खंड हैं।


पद्मावती का सुआ 


एक दिवस पून्यो तिथि आई । मानसरोदक चली नहाई ॥

पदमावति सब सखी बुलाई । जनु फुलवारि सबै चलि आई ॥

कोइ चंपा कोइ कुंद सहेली । कोइ सु केत, करना, रस बेली ॥

कोइ सु गुलाल सुदरसन राती । कोइ सो बकावरि-बकुचन भाँती ॥

कोइ सो मौलसिरि, पुहपावती । कोइ जाही जूही सेवती ॥

कोई सोनजरद कोइ केसर । कोइ सिंगार-हार नागेसर ॥

कोइ कूजा सदबर्ग चमेली । कोई कदम सुरस रस-बेली ॥


पद्मावती को सबसे प्रिये उसका सुआ था जिसके साथ वो पूरा दिन बिताया करती थी।  

एक दिन जब पद्मावती सखियों को लिए हुए मानसरोवर में स्नान करने गई तो सुआ भी उनके साथ चल दिया जहाँ वह वन में पक्षियों ने उसका बड़ा सत्कार किया। वन में सुआ को बहेलिये ने पकड़ लिया और बाज़ार में उसे बेचने के लिए ले गया। जहा से सूए को एक ब्राह्मण ने खरीद लिया और चित्तोर ले गया। चित्तौड़ में उस समय 'रत्नसेन' गद्दी पर बैठा था। प्रशंसा सुनकर रत्नसेन ने लाख रुपये देकर हीरामन सूए को मोल ले लिया।


पद्मावती का सौन्दर्य बखान 


पदमावति पहँ आइ भँडारी । कहेसि मँदिर महँ परी मजारी ॥

सुआ जो उत्तर देत रह पूछा । उडिगा, पिंजर न बोलै छूँछा ॥

रानी सुना सबहिं सुख गएऊ । जनु निसि परी, अस्त दिन भएऊ ॥

गहने गही चाँद कै करा । आँसु गगन जस नखतन्ह भरा ॥

टूट पाल सरवर बहि लागे । कवँल बूड, मधुकर उडि भागे ॥

एहि विधि आँसु नखत होइ चूए । गगन छाँ सरवर महँ ऊए ॥

चिहुर चुईं मोतिन कै माला । अब सँकेतबाँधा चहुँ पाला ॥


एक रोज रानी नागमती सूए के पास आई और बोली - 'मेरे समान सुन्दरी और भी कोई संसार में है?' जिस पर हस्ते हुए सूए ने पद्मावती की सुंदरता का बखान करना चालू जिस पर रानी ने उसे मार देने देने का आदेश दिया। परिणाम के दर से दास ने सूए को नहीं मारा जब राजा ने सूए की पूछ की तो सूए को राजा के समक्ष लाया गया जहाँ उसने पद्मावती के अनुपम सौंदर्य का वर्णन किया। राजा की पद्मावती को देखने की अभिलाषा अत्यंत उत्तेज हो गई। और सूए को ले कर वो सिंघल राज्य की और निकल गया। 


पद्मावती और सुये की भेंट 


बिछुरंता जब भेंटै सो जानै जेहि नेह ।

सुक्ख-सुहेला उग्गवै दुःख झरै जिमि मेह ॥


राजा के साथ सोलह हज़ार कुँवर भी जोगी होकर चले। सिंहलद्वीप में उतरकर जोगी रत्नसेन तो अपने सब जोगियों के साथ महादेव के मन्दिर में बैठकर तप और पद्मावती का ध्यान करने लगा और हीरामन पद्मावती से भेंट करने गया। उसने राजा को बताया की पंचमी के दिन पद्मावती इसी महादेव के मण्डप में वसन्तपूजा करने आएगी; और तब आपकी उससे मिलने की अभिलाषा पूर्ण होगी। इतने वक़्त के बाद सूए को देख पद्मावती रोने लगीं जिसके बाद सूए ने राजा के राज वैभव का बखान किया जिस पर पद्मावती उससे विवाह करने पर मान गई। रत्न और पद्मावती मिलान 


राजै तपत सेज जो पाई । गाँठि छोरि धनि सखिन्ह छपाई ॥

कहैं, कुँवर ! हमरे अस चारू । आज कुँवर कर करब सिंगारू ॥

हरदि उतारि चढाउब रगू । तब निसि चाँद सुरुज सौं संगू ॥

जस चातक-मुख बूंद सेवाती । राजा-चख जोहत तेहि भाँती ॥

जोगि छरा जनु अछरी साथा । जोग हाथ कर भएउ बेहाथा ॥

वै चातुरि कर लै अपसईं । मंत्र अमोल छीनि लेइ गईं ॥

बैठेउ खोइ जरी औ बूटी । लाभ न पाव , मूरि भइ टूटी ॥


वसंत पंचमी के दिन जैसे ही राजा ने पद्मावती को देखा वैसे ही वो मूर्छित हो गया पद्मावती ने उसका उपचार किया परन्तु जब वो नहीं जगा तो चन्दन से उसकी ह्रदय पर लिख दिया की 'जोगी, तूने भिक्षा प्राप्त करने योग्य योग नहीं सीखा, जब फलप्राप्ति का समय आया तब तू सो गया' और वह से चली गई। 


युद्ध और विवाह 


कटक असूझ देखि कै राजा गरब करेइ ।

देउ क दशा न देखै , दहुँ का कहँ जय देइ ॥


राजा गन्धर्वसेन के यहाँ जब यह खबर पहुँची तब उसने दूत भेजे जिसके द्वारा उसे पूरी सुचना प्राप्त हुए और उसने राजा रत्नं जिंगः को बंदी बना लेने का आदेश दिया। जा गन्धर्वसेन के यहाँ विचार हुआ कि जोगियों को पकड़कर सूली दे दी जाय। दल बल के सहित सब सरदारों ने जोगियों पर चढ़ाई की। रत्नसेन के साथी युद्ध के लिए उत्सुक हुए पर रत्नसेन ने उन्हें यह उपदेश देकर शान्त किया कि प्रेममार्ग में क्रोध करना उचित नहीं। अन्त में सब जोगियों सहित रत्नसेन पकड़ा गया। इधर यह सब समाचार सुन पद्मावती की बुरी दशा हो रही थी। हीरामन सूए ने जाकर उसे धीरज बँधाया कि रत्नसेन पूर्ण सिद्ध हो गया है, वह मर नहीं सकता।



हाट बाट सब सिंघल जहँ देखहु तहँ रात ।

धनि रानी पदमावति जेहिकै ऐसि बरात ॥


जब राजा को सूली पर चढाने की तैयारी हो रही थी तब महादेव और पार्वती भाट भाटिनी का रूप धरकर वहाँ पहुँचे और राजा गंधर्व को समझने का प्रयास की की जिसे तमने बंदी बना रखा है वे कोई योगी नहीं परन्तु एक छेत्रिये हैं जो तम्हारी पुत्री के लिए योग्य है। महादेव के साथ हनुमान आदि सब देवता जोगियों की सहायता के लिए आ खड़े हुएऔर चारो तरफ से घेर लिया और चढ़ाई करने के लिए तत्पर आ गए। गन्धर्वसेन की सेना के हाथियों का समूह जब आगे बढ़ा तब हनुमान जी ने अपनी लम्बी पूँछ में सबको लपेटकर आकाश में फेंक दिया। राजा गन्धर्वसेन को फिर महादेव का घण्टा और विष्णु का शंख जोगियों की ओर सुनाई पड़ा और साक्षात शिव युद्धस्थल में दिखाई पड़े। यह देखते ही गन्धर्वसेन महादेव के चरणों पर जा गिरा और बोला - 'कन्या आपकी है, जिसे चाहिए उसे दीजिए' जिसके बाद पद्मावती और राजा रत्न का विवाह कर दिया गया। 

राघव को देश निकला 

राघव चेतन चेतन महा । आऊ सरि राजा पहँ रहा ॥

चित चेता जाने बहु भेऊ । कबि बियास पंडित सहदेऊ ॥

बरनी आइ राज कै कथा । पिंगल महँ सब सिंघल मथा ॥

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