
दिन यों ही बीत गया!
अंजुरी में भरा-भरा जल जैसे रीत गया।
सुबह हुई तो प्राची ने डाले डोरे
शाम हुई पता चला थे वादे कोरे
गोधूलि, लौटते पखेरू संगीत गया।
दिन यों ही बीत गया!
भारत की इस भूमि पर अनेक साहित्यकारों ने जन्म लिया, जिन्होंने अपने साहित्यिक योगदान के माध्यम से भारतीय संस्कृति को समृद्ध करने का काम किया है। जिस प्रकार से एक चित्रकार रंगों के माध्यम से अपनी कल्पनाओं को उड़ान देता है और उन कल्पनाओ को अपने ढंग से कागज पर उकेरता है और लोगों तक पहुंचाता है, ठीक उसी प्रकार से एक साहित्यकार अपनी रचनाओं से समाज की विविधता, संघर्ष और आशाओं को अपने-अपने अंदाज में और शब्दों के सहारे कागज पर उकेरता है।
उनके जन्म और पुण्यतिथि के अवसर पर, यह महत्वपूर्ण है कि हम उनके साहित्यिक योगदान को पहचानें और उसकी गहराई को समझें। इन साहित्यकारों ने न केवल अपनी लेखनी से समाज के विभिन्न पहलुओं को सामने रखा, बल्कि उनकी रचनाएँ आज भी हमें प्रेरित करती हैं और हमारे सांस्कृतिक धरोहर को संजोए हुए रखती हैं। उनकी रचनाएँ समय के साथ अमर हो गई हैं और भारतीय साहित्य के इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं।
उमाकांत मालवीय (2अगस्त,1931- 11,नवंबर,1982)
उमाकांत मालवीय का जन्म २ अगस्त, १९३१ को महाराष्ट्र के मुंबई शहर में हुआ था। वे हिंदी साहित्य के प्रसिद्ध कवी और गीतकार थे। पौराणिक कहानियों को नए अंदाज़ में प्रस्तुत करते हुए उन्होंने कई दिलचस्प मिथकीय कहानियों और ललित निबंधों की रचना की है। उनके द्वारा बच्चों के लिए लिखी हुई किताबें बहुत खास हैं, जो अपने अनोखे अंदाज़ और शिक्षा के कारण पसंद की जाती हैं, इसके साथ ही वे कवि सम्मेलनों का संचालन भी बहुत संजीदगी और कुशलता से किया करते थे। वे नवगीत आंदोलन के प्रमुख नेता थे। उन्होंने काव्य क्षेत्र में नवगीत विधा को अपनाया और उसे एक नई ऊचाईयों पर पहुंचाया। कई कवि सम्मेलनों में उनके नवगीतों ने खूब धूम मचाई और बहुत लोकप्रिय हुईं। उनका मानना था कि आज के समय में भावनाओं की तीव्रता को संक्षेप में व्यक्त करने के लिए नवगीत सबसे अच्छा माध्यम है।
उमाकांत मालवीय द्वारा लिखें हुए कुछ प्रसिद्ध नवगीत:
देखा नहीं गया
टहनी पर फूल जब खिला
हमसे देखा नहीं गया।
एक फूल निवेदित हुआ
गुलदस्ते के हिसाब में
पुस्तक में एक रख दिया
एक पत्र के जवाब में
शोख़ रंग उठे झिलमिला
हमसे देखा नहीं गया।
प्रतिमा को औ’ समाधि को
क्षण-भर विश्वास के लिए
एक फूल जूड़े को भी
गुनगुनी उसाँस के लिए
अलि गुंजन, गीत सिलसिला
हमसे देखा नहीं गया।
एक फूल विसर्जित किया
मिथ्या सौंदर्य-बोध को
अचकन की शान के लिए
युग के कापुरुष क्रोध को
व्यंग्य टीस उठी तिलमिला
हमसे देखा नहीं गया।
एक सूर्य डूबा
दिन यों ही बीत गया!
अंजुरी में भरा-भरा जल जैसे रीत गया।