अमृता प्रीतम जिनका लिखा वक़्त की देहलीज़ कभी बाँध न सकी।'s image
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अमृता प्रीतम जिनका लिखा वक़्त की देहलीज़ कभी बाँध न सकी।

इंसान अपने अकेलेपन से निजात पाने के लिए

  मोहब्बत करता है,

  और मुहब्बत इस बात की तस्दीक करती है कि

  उसका अकेलापन अब ताउम्र कायम रहेगा।

-अमृता प्रीतम


आपमें से शायद ही कोई ऐसा हो जो आज के समय में आग की तरह फैले रील्स बनाने के शोख से परिचित न हो। हाल ही के दिनों में अभिनेत्री तापसी पन्नो द्वारा एक अवॉर्ड शो में अपने ढंग से पढ़ी गयी कविता पर नजाने कितने ही लोगो ने रील्स बनाई तो और लाइक्स कमेंट करने का आग्रह किया। अब जानना ये जरुरी है की अभिनेत्री तापसी पन्नो द्वारा पढ़ी वो कविता थी क्या ?

कविता कुछ इस प्रकार थी : 

मैं तैनु फिर मिलांगी 

तेरे मत्थे की लकीरे बन 

तैनु तकदी रवांगी 

पर मैं तैनु फिर मिलांगी !


तापसी पन्नो द्वारा पढ़ी ये कविता वास्तव में सुप्रसिद्ध कवयित्री अमृता प्रीतम ने लिखी थी जिनकी लेखनी पर समय की धुल का कोई असर नहीं पड़ा और इस बात का साक्षात प्रमाण है उनकी कविता का आज के दौर में भी यूँ प्रचलित होना। 


एक थी प्रीतम

अपनी कलमकृति से वो मकाम हासिल करने वाली जहाँ पहुंचने के लिए नजाने कितनी ही उम्रों की जरुरत पड़ जाती है ,'मैं तेनु फिर मिलांगी' लिखने वाली जो खुद के बारे में कहती थीं परछाइयाँ पकड़ने वालों छाती में जलने वाली आग की परछाइयाँ नहीं होती ,पंजाबी और हिंदी की मशहूर लेखिका अमृता प्रीतम।जिस और आज़ादी के लिए क्रांतिकारी जत्थे तैयार किया जा रहे थे उसी के पलट अंग्रेज अपने शत्रुओं से लोहा लेने के लिए भारतियों की फौज में भर्ती कर उन्हें बाहर भेज रहे थे। हम बात कर रहें हैं पहले युद्ध से तकरीबन ५-७ साल पहले की। कई भारतीय नौजवानो को युद्ध की आग में झोंक दिया गया। कई गए पर लौट कर कभी नहीं आए। उन्ही में से था एक गुजरात की राजबेदी का शोहर जो युद्ध की आग में गया पर उसकी राख तक ना वापिस लौटी। ऐसे में अपनी जिंदगी को नया लक्ष्य देने के लिए ने स्कूलों में पढ़ाने का कार्य शुरू किया। लाहौर के गुजरावाला में अपनी विधवा भाभी के साथ रोज एक डेरे में माथा टेकने जाती और स्कूल चली जाती। एक दिन डेरे में एक नौजवान साधू पर नजर पड़ी जो संस्कृत, वृज भाषा और साहित्य का अच्छा जानकार था पर अपनी निजी जिंदगी में लगे ठोकरों से साधू बनने की राज में चला आया था। राजबेदी से मुलाक़ात ने एक बार फिर जिंदगी जीने की इक्षा को प्रबल कर दिया दोनों ने शादी की और नन्द स्वामी अब क़तर सिंह पियूष बन गए। पियूष का अर्थ होता है अमृत इस कारण जब दस वर्ष के लम्बे इंतजार के बाद घर में बेटी आयी तो उसका नाम रखा गया अमृता । घर में धार्मिक माहौल रहा परन्तु १० वर्ष बाद जब अमृता १० साल की हुई उनकी माँ का साया उनके ऊपर से उठ गया ,घटना के बाद पिता ने दुबारा संन्यास लेने का फैसला किया। परन्तु इस बार अमृता के रिश्ते न उन्हें रोक लिया। 

कतार कविताएं कहानिया और जीत रात-रात भर जाग कर लिखा करते थे। जिसका सीधा असर अमृता पर हुआ। हांलाकि घर में हमेशा से धार्मिक माहौल रहा परन्तु वो धार्मिक सोच ले कर नहीं लिखती थीं .जब उनकी माँ बीमार थी तब उनकी सहेली ने कहा था की आंख बंद कर सच्चे दिल से भगवान से माँ के अच्छे स्वस्थ्य की प्राथना कर वो ठीक हो जाएंगी क्यूंकि बच्चो की बात ईश्वर जरूर सुनता है अमृता न घंटो प्राथना की परन्तु नियति को कुछ और मंजूर था अमृता की माँ का देहांत हो गया। इस घटना का बच्ची अमृता के दिमाग पर खासा असर पढ़ा ईश्वर की वास्तविकता पर से विश्वास उठ गया। पिता की धार्मिक परंपरा का पालन करना बंद कर दिया। पिता से तर्क वितर्क करने में भी पीछे नहीं रहती। अमृता ऊंच-नीच के खिलाफ अकेले ही मोर्चा सँभालने का कार्य करती थी। बचपन में जब ये देखा की नानी छोटी जाती के लोगो के लिए अलग और अपने घर के लोगो के लिए अलग बर्तन रखी हैं ये बात अमृत को नागवारा गुजरी और घर में ही बवाल कर दिया की मुझे खाना मिले तो उसी बर्तन में मिले। खैर बेटी की जिद्द के आगे सब धरा का धरा रह गया और सभी बर्तन समान हो गए। सोलह साल की उम्र में ही उनका पहला लेखन अमृत लहरें बाज़ार में आई और इस यात्रा का जयघोष हुआ। शायद इसलिए सोलवेह साल को वो सबसे महत्त्वपूर्ण बताती थी।

अपनी आत्मकथा रसीदी टिकट में वो लिखती हैं :

सोलवेह साल में मेरा परिचय उस असफल प्रेम की तरह था जिसकी काशक हमेशा के लिए वहीँ पड़ी रह जाती है। शायद इसीलिए ये सोलह साल मेरी जिंदगी के हर साल में कहीं न कहीं शामिल है। 

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