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यूँ माना ज़ि‍न्दगी है चार दिन की - फ़िराक़ गोरखपुरी

यूँ माना ज़ि‍न्दगी है चार दिन की बहुत होते हैं यारो चार दिन भी ख़ुदा को पा गया वायज़ मगर है ज़रूरत आदमी को आदमी की बसा-औक्रात1 दिल से कह गयी है बहुत कुछ वो निगाहे-मुख़्तसर भी मिला हूँ मुस्कुरा कर उससे हर बार मगर आँखों में भी थी कुछ नमी-सी महब्बत में करें क्या हाल दिल
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