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"चरक शपथ" एक गंभीर अपराध?

क्या होता है जब इण्डिया में “भारत” की किसी उत्कृष्ट परम्परा का पालन किया जाता है? आप कहेंगे कि भारतीय हर्षित होते हैं और उन्हें अपने देश की महान उपलब्धियों पर गर्व की अनुभूति होती है । किंतु वास्तविकता यह है कि भारत के बहुत से प्रभावशाली लोग अत्यंत दुःखी हो जाते हैं । वे आत्मग्लानि, मनःक्षोभ और हीनभावना के सागर में इतने अधिक डूब जाते हैं कि भारत की प्रजा को ऐसा लगने लगता है मानो कोई बहुत बड़ी समस्या आन खड़ी हुयी है जिसका तुरंत समाधान न किया गया तो भारत पर घोर संकट छा जाएगा । चिकित्सा छात्रों द्वारा “चरक शपथ” लेने के आरोप पर डीन को उनके पद से हटाने और “हनुमान चालीसा पाठ” करने की घोषणा पर सांसद और उनके विधायक पति पर देशद्रोह की धाराएँ लगा कर कारागार में ठूँस देने और उन्हें न्याय मिलने के मार्ग में अधिकतम विलम्ब एवं बाधायें उत्पन्न करने की निर्लज्जता को पूरे देश ने बड़ी लज्जापूर्वक देखा और सुना है । 

तमिलनाडु के मदुरै स्थित राजकीय चिकित्सा महाविद्यालय में “चिकित्सादीक्षा सत्रारम्भ” पर प्रथमवर्ष के छात्रों द्वारा ब्रिटिश-इण्डिया यानी पराधीन भारत की परम्परागत “हिप्पोक्रेटिक ओथ” के स्थान पर “चरक शपथ” लेने पर तमिलनाडु सरकार इतनी कुपित और विचलित हो गयी कि उसने तत्काल प्रभाव से डीन को उनके पद से हटा दिया । भयभीत हुये डीन डॉक्टर रथिनवेल को आत्मग्लानि हुयी और उन्होंने ग्रीक-सभ्यता की उपासक तमिलनाडु सरकार को दयनीय भाव से स्पष्टीकरण दिया कि यह सब छात्रों की असावधानी के कारण हुआ था, इसमें स्वयं उनकी कोई भूमिका नहीं है, वे निर्दोष हैं । 

मदुरै मेडिकल कॉलेज में चरक संहिता, विमान स्थान, अध्याय 8, अनुच्छेद 13 में वर्णित चिकित्सा शपथ के सारांश का उपयोग किया गया जिसका वाचन किए जाने के कारण माननीय और प्रभावशाली लोग आत्मग्लानि और गम्भीर अपराधबोध से भर उठे हैं । यह है वह आयुर्वेदोक्त “चरक शपथ” – “मैं पूर्वाभिमुख होकर पवित्र अग्नि, विद्वजन एवं ग्रंथों को साक्षी मानते हुये यह प्रतिज्ञा करता हूँ कि एक चिकित्सक होने के नाते मैं संयत, सात्विक और अनुशासित जीवन व्यतीत करूँगा; अपने जीवन में शांति, समाधान एवं विनम्रता को स्वीकार करूँगा; अपने वैद्यकीय ज्ञान का उपयोग केवल सफलता और सम्पत्ति प्राप्त करने के लिए नहीं अपितु सभी प्राणिमात्र के कल्याण के लिए करूँगा; वैयक्तिक कार्यभार एवं विश्रांति की अपेक्षा रोगी की सेवा को अधिक महत्व दूँगा; स्वार्थ और अर्थ प्राप्ति के लिए रुग्ण का अहित नहीं होने दूँगा; अनैतिक विचारों से सदैव दूर रहूँगा; मेरा रहन सहन सीधा-सादा किंतु प्रभावशाली रहे और मेरा व्यक्तित्व विश्वासदायक रहे इस बात के प्रति सदैव जागरूक रहूँगा; मेरी भाषा सदैव विनम्र, मधुर, पवित्र, उचित, आनंदवर्द्धक एवं हितकर हो इसके लिए प्रयत्नशील रहूँगा; रोगी के परीक्षण के समय मैं अपनी सभी ज्ञानेन्द्रियों एवं मन के साथ व्याधि निदान पर ध्यान दूँगा; स्त्री रुग्णा का परीक्षण एवं चिकित्सा उसके पति, आप्त या स्त्री परिचारक की उपस्थिति में रहते हुये ही करूँगा; रुग्ण अथवा उसके सभी संबंधियों की जानकारी गोपनीय रखूँगा । मैं नित्य नये तंत्र ज्ञान एवं नये अनुसंधान के लिए सतत प्रयत्नशील रहूँगा; विपरीत आचरण करने पर मेरे लिए अशुभकारक हो”।

तमिलनाडु के वित्त मंत्री पी.टी.आर.पलानीवेल थियागा राजन के लिए यह एक गहरा आघात था, उन्हें इतनी ग्लानि हयी कि उन्होंने कार्यक्रम के बाद मीडिया को बताया कि वे “भौंचक रह गये” जब उन्होंने भारतीय छात्रों को ग्रीस देश के “हिप्पोक्रेटस की शपथ के स्थान” पर भारत देश की “चरक शपथ” लेते हुये (वह भी संस्कृत में) छात्रों को सुना । वित्तमंत्री ने अपनी अभिलाषा प्रकट करते हुये बताया कि वे तो चाहते हैं कि “राजनेताओं को भी हिप्प्क्रेटिक ओथ ज़रूर लेनी चाहिये”। 

कदाचित तमिलनाडु सरकार का अब अगला प्रहार “राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग” पर होगा जिसने हिप्पोक्रेटिक ओथ को “चरक शपथ” से बदलने की अनुशंसा की थी । राष्ट्रवादी “भाजपा” के केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री मनसुख मांडविया ने कुछ समय पूर्व ही संसद में बड़े अपराध बोध के साथ एक सुरक्षात्मक वक्तव्य दिया था कि भारत की “चरक शपथ” भारतीय “छात्रों पर थोपी नहीं जायेगी बल्कि वैकल्पिक होगी”, गोया “सत्य किसी पर थोपा नहीं जायेगा बल्कि वैकल्पिक होगा” अथवा “सूर्य का प्रकाश किसी पर थोपा नहीं जाएगा बल्कि वैकल्पिक होगा”। भारत के बड़े-बड़े और प्रभावशाली लोग अपने देश में विदेशी परम्पराओं के स्थान पर भारतीय परम्पराओं के पालन किये जाने से कितने दुःख और ग्लानि से भर जाते हैं, यह इसका ताजा उदाहरण है जो 11 मार्च 2022 को मदुरै में देखने को मिला ।

भारत में आयुर्वेद के विद्यार्थी, ईसा पूर्व पंद्रहवीं शताब्दी से ही महर्षि पुनर्वसु आत्रेय के शिष्य और प्रख्यात आयुर्वेदज्ञ महर्षि अग्निवेश के चिकित्साग्रंथ “अग्निवेशतंत्र” में उल्लेखित आयुर्वेदोक्त शपथ ग्रहण करते रहे हैं । बाद में तक्षशिला के छात्र रहे महर्षि चरक ने इसी अग्निवेशतंत्र का प्रतिसंस्कार किया जिसके बाद से अग्निवेश तंत्र “चरकसंहिता” के नाम से विख्यात हुआ । प्रसंगवश यह बताना आवश्यक है कि आठवीं शताब्दी में सर्जरी के आदिग्रंथ “सुश्रुत संहिता” का अरबी में अनुवाद ख़लीफ़ा मंसूर ने किया और सर्जरी को पश्चिमी देशों तक पहुँचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी । 

ईसवी सन् से 460 वर्ष पूर्व जन्म लेने वाले हिप्पोक्रेट्स (जो फ़िज़िशियन थे, आज की तरह फ़िज़िशियन एण्ड सर्जन नहीं) के समय तक पश्चिमी देशों में सर्जरी अपने विकास के प्रारम्भिक चरण में हुआ करती थी इसीलिए हिप्पोक्रेट्स की ओथ में सर्जरी को सम्मिलित नहीं किया गया है । भारतीय छात्र उसी अधूरी ओथ को ग्रहण करके गर्वान्वित होते हैं जबकि वे “बैचलर ऑफ़ मेडीसिन एण्ड बैचलर ऑफ़ सर्जरी” की शिक्षा ग्रहण करते हैं । 

यह उल्लेख करना भी प्रासंगिक है कि कुछ विदेशी आक्रामक भारत से अपने देश वापस जाते समय भारतीय विद्वानों और आयुर्वेदिक ग्रंथों को साथ ले जाना नहीं भूले । उन्होंने इन ग्रंथों का विदेशी भाषाओं में अनुवाद कराया और पश्चिमी देशों को भारतीय चिकित्सा विज्ञान से परिचित कराया । इन लोगों में सिकंदर का भी नाम है जो अपने साथ आयुर्वेदिक टॉक्ज़िकोलॉज़ी के विशेषज्ञों को लेकर मक्दूनिया गया था ।  

आयुर्वेदोक्त चिकित्सा शपथ का वर्णन चरक संहिता के विमान स्थान के अध्याय आठ के अनुच्छेद तेरह में विस्तार से किया गया है जिसे किंचित परिवर्तन के साथ हिप्पोक्रेट्स ने और फिर पश्चिमी देशों ने भी अपनाया । यद्यपि दोनों शपथों में बहुत कुछ साम्यता है तथापि कुछ “वैचारिक और सांस्कारिक” अंतर हैं जो आयुर्वेदोक्त शपथ की श्रेष्ठता को प्रमाणित करते हैं । 


यहाँ प्रस्तुत है ईसापूर्व 460 में रचित “हिप्पो

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