बरसात के मौसम में
पूर्णिमा की रात है और
चाॅंद अपनी पूर्णकला में खिला है...
चाँद की शीतल किरणें जो
मेरे मन की गहराइयो को छूकर
अधूरे अरमानों को निहार रही है।
सपनों और यथार्थ के बीच
झूलते हुए, चाॅंद के दागो में
मैं अपनी असफलताओं के निशान देख रहा हूँ...
मुक्ति की चाह में
अपने बंधनों से लड़ रहा हूँ
चाॅंद की चाॅंदनी में खुद को पिघला रहा हूँ...
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