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180. प्रेम की जमीन - कामिनी मोहन।

वो वक़्त-सा जाकर भी मुझ तक लौटता रहा,
इस मोड़ से उस मोड़ तक बस देखता रहा।
न रुका न चला बस सोचता रहा,
अपने ही क़दमों को तुम तक पहुँचाता रहा।

पानी की तरह बहता जाता है सबकुछ,
चुपचाप क़दमों से राह निकलता रहा।
कभी तेज़-सी, कभी हल्की-सी हैं ज़िंदगी की लौ,
ख़बर चराग़ों की उपस्थिति तक दर्ज़ करता रहा।

अपनी उपस्थिति का ही फ़र्ज़ मुझ पर रहा,
खुली आँखों क
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