न तो अंतर्तम की ख़ूबसूरती को  और न ही प्रेम को  खरीदा जा सकता है  - © कामिनी मोहन पाण्डेय।'s image
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न तो अंतर्तम की ख़ूबसूरती को और न ही प्रेम को खरीदा जा सकता है - © कामिनी मोहन पाण्डेय।

न तो अंतर्तम की ख़ूबसूरती को

और न ही प्रेम को

खरीदा जा सकता है

- © कामिनी मोहन पाण्डेय।


 की स्थिति को जानकर ही अंतःस्फूर्ति को जाना जा सकता है। हमारा ह्यदयाकाश बहुत ही असीम है। इसमें सम्पूर्ण सृष्टि समाहित है। इसे सदैव खोले रखना चाहिए। सदाशयता पूर्वक मन का इसमें प्रवेश होना चाहिए। क्योंकि यहाँ चाहत नहीं, कोई दुर्भावना नहीं, सांसारिक उद्योग और मानसिक भेद भी नहीं है। यह वास्तविक तौर पर हमारे भीतर में पनप रही महत्वाकांक्षाओं से प्रभावित भी नहीं है।

हमारे हृदय का आकाश दुनिया के वाह्य जगत के लिए नहीं है। यह दुनियावी पचड़े में पड़ा नहीं रहता। लेकिन यदि हम इसमें दुनिया भर की तमाम ऊल-जलूल चीज़ों और विचारों को भरते जाएँगे तो हमारा संपूर्ण जीवन संघर्ष से भर जाएगा, ऐसा संघर्ष जिसका अंतस् चेतना से कोई लेना देना नहीं है।

जिस प्रकार वाह्य जगत में कोई चीज़ सुंदर है तो उसके सुंदर लगने के पीछे प्रेम है। यदि प्रेम न हो तो सब कुछ केवल होना प्रतीत होगा, जिसका हम पर कोई प्रभाव नहीं होगा। प्रभाव के न होने के कारण कोई आनंद भी नहीं होगा।

वस्तुतः अहम के कारण व्यक्ति न तो जीवन को समझ पाता है और न तो जीवन की शक्ति को। व्यक्ति अपने होने और न होने को भी नहीं समझ पाता है। हमारा अहम हमेशा प्रशंसा चाहता है। वह नहीं चाहता कि कोई उसे अहम की कुर्सी से नीचे गिराए।

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