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हताश, मर्मांहत अंतर्द्वंद्व - कामिनी मोहन।

हताश, मर्मांहत अंतर्द्वंद्व
टूटती-बिखरती छली हुईं।
जीने की उत्कंठा में जुडती,
निःस्तब्धता अँधियाली हुईं।

समृद्धि सुख की कामना में,
दु:ख उर बीच संजोतीं।
निर्जन परिक्षेत्र में बस,
क्या कुछ चाहिए सोचतीं।

ज़ख्म खुरचे तो,
आत्मीयता निहारतीं।
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