192. आँख ढाँप ढाँप के
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192. आँख ढाँप ढाँप के -© कामिनी मोहन।

टिमटिमाती रोशनी आँख ढाँप ढाँप के
बुझ गया दीपक काँप काँप के
पर होने और न होने को दुनिया बोले
सब चीजें है मौजूद गठरी कौन खोले।

हमने सोचा कि सब स्थायी होते होंगे
सही हो या कि ग़लत सब बोलते होंगे।

नहीं, कुछ ऐसे धूल है
आपस में बंधे हुए
प्रार्थनाओं से हैं गुंथे हुए
सब कुछ अनंत में है सिमटे हुए
कि अचानक ही
सूखी और गीली होती मिट्टी को देखते हुए
संग उसके बदलते हुए
कुछ और हो जाने पर ही ख़ुश होते होंगे।

बहुत प्राचीन स्वाद लिए
गीली जीभ से लिपटे होंग
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