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243.अफ़सोस- कामिनी मोहन।

हर कविता वैश्विक मंच पर नहीं बोलती
आलोचना की गठरी को नहीं खोलती
दुख के आँसू से भीगी हुई
नैतिक व्यापार के नफ़ा-नुक़सान से
सिसकने को भी ज़ाहिर नहीं करतीं

चूक है विचारों की या कि
व्याख्यान की क़वायद है
जो स्मृतियों में लरज़ती है
कविता के अक्षरों में चलती रहती है

वह प्रेम जो थकाऊ कभी नहीं रहा
समसामयिक प्रयोगों को
समझते-समझते
एक ही कोख से लेकर जन्म
धारा के विपरीत चल पड़ती है

सबका धर्मप्रान्त एक-सा
तमाम कर्म-
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