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216.बग़ैर तर्क का संसार-© कामिनी मोहन पाण्डेय

कभी-कभी चीज़ों को नहीं जानना बहुत आसान होता है, लेकिन कठिनाई यह है कि संसार में जिन चीज़ों से हमारा परिचय है भी वह संसार तर्क की भाषा को समझता है। इस संसार में बग़ैर तर्क के विवादों से निकलने का पथ स्वीकार करना मुश्किल है। हाँलाकि इस संसार से परे भी एक संसार है, जहाँ तर्क की भाषा को कोई अधिकार प्राप्त नहीं है। वहाँ श्रद्धा और विश्वास की भाषा ही समझी जाती है। इस भाषा को समझने वाला समर्पण का पद स्वीकार कर चुका होता है। 

श्रद्धा, विश्वास और समर्पण से उपजा प्रेम दो दिशाएँ लेकर जीवन में आता है। एक संसार की ओर जाता है, तो दूसरा तृप्ति की ओर। यह बिल्कुल प्रेम की तरह है। संसार की ओर निकल पड़ा प्रेम आसक्त होकर वासना में उलझता है, लेकिन चेतना की ओर बढ़ जाने वाला प्रेम संसार की ओर बहना छोड़ देता है। यह वाह्य शक्ति और वासनाओं से परे चला जाता है। श्रद्धा, विश्वास और समर्पण अपने ही स्व में बसे परमात्म तत्व की ओर बढ़ चलता है संसार की ओर चला हुआ प्रेम तर्क की मीनारें गढ़ता है। जिसकी ऊँचाई इतनी होती है कि उस पर चढ़ते हुए ही जीवन आपाधापी में ही गुज़र जाता है। ऐसा जीवन चेतना की ओर मुड़ कर देखने ही नहीं देता। तर्क अहम् की मीनारों की ओर चढ़ने की कोशिश में अहंकार की रक्षा करता जाता है, इसीलिए, गणित लगाता रहता है, और रोज़ नए-नए तर्क-वितर्क-कुतर्क गढ़कर चलायमान रहता है। 

वस्तुतः फ़र्क़ करने पर प

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