214.वह अंधेरे की कच्ची चमक से
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214.वह अंधेरे की कच्ची चमक से -© कामिनी मोहन पाण्डेय

वह अंधेरे की कच्ची चमक से
बाहर निकलती है,
और फिर उन्हें वापस मोड़ देती है।

परत दर परत
ख़ुद की छवि के
टूटे हुए सपनों के
गीतों के टुकड़ों के
टूटे हुए शरीरों
और टूटी हुई आवाज़ों के
टूटे हुए घेरों को देखती हैं।

सुबह और शाम को
आती-जाती सांस को
स्वयं सारी भाषाओं को
जिसकी लिपि ईजाद न
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