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212. प्राचीनतम शहरों में- कामिनी मोहन।

प्राचीनतम शहरों में
जो आवाज़े बंद हो गई उनकी
फुसफुसाहट सुनता हूँ।

जानते, देखते, कल्पना करते
सभ्यताएं बहुत बीत चुकी हैं।

वह सब जो मैंने देखा है
मुझे जो दिखाई देता है
सब इतना ही है कि
कहीं रेत के कण जैसे
किसी दर्पण में दर्ज़ हो सके।

फिर भी मानने को जी नहीं चाहता है
क्योंकि मैं गीले हाथों से
टपके बूँदों को अब तक नहीं ढूँढ़ सका हूँ
दर्पण में सिर्फ एक चेहरा है
एक खोपड़ी है
जो गर्दन से जुड़े हुए
दर्पण के सामने थका-सा है।

धुंध मेरे सामने फीका है।
नश्वर दिल में बसे दिल-ए-ब
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