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201.मुँह-अँधेरे जाग-जागकर - कामिनी मोहन।

गाता है चुपचाप सुमधुर गीत
प्रेमी अपनी ही धड़कन का।
गुनगुनाता है प्रेरित प्रेम
नव उपवन की सुगंध का।

ज्यों-ज्यों परछाईं आगे बढती है
अपना चेहरा छुपा-छुपाकर।
त्यों-त्यों गतिमान उजाला आगे बढ़ता है
अपनी छवि दिखा-दिखाकर।

प्रेम बिना अंधेरे
बिना उजाले के रच-बसकर।
बुनियाद
अंतस् में है स्थिर धंस-धंसकर।

कितना दुखी है <
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