187." एक चेहरे के सहारे "
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187." एक चेहरे के सहारे " - © कामिनी मोहन।

अंधेरे कोने में आँखों को विस्फारित कर 
अधजली चिन्ताएँ कुरेदते जाते हैं
बार-बार अनदेखा देखते हैं
देख लेने के बाद गहरी साँस लेकर 
फिर नए को देखने की कोशिश करते हैं। 

तड़प, पीड़ा, दुख को
शिथिल अंगों से ढोते हैं
किसी दूसरी दुनिया में जहाँ 
कोई द्वंद्व न हो वहाँ 
जीते जी संभव न सही 
मरने के बाद का दृश्य बुनकर
वापस हो लेते हैं। 

जन्म और मरण के अंतराल में
कविता की तड़प को सहते हुए 
बेख़ौफ़ शब्दों की ध्वनि के टूटते ह
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