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181. फिर एक दिन - कामिनी मोहन।

है बस
चारों ओर
मिट्टी, धूल, राख
राख बस राख
बेमतलब नहीं
है यह भी
राख का ठुआ
करता हैं इशारे।

विचार में
प्रेम की धार में
इकट्ठा
देखता हूँ,
हज़ार-हज़ार कणों को
हवा में घुलकर
तैरते देखता हूँ।

घाटियों, पर्वतों
पर चढ़कर
टूटते, बिखरते,
ठहरते देखता हूँ,
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