खपड़ैल ,
छपरा ,
और केवाड़ छूटत है,
आधुनिकता के अंधी दौड़ में,
हमार औलाद छूटत है...!
शाम के दुआरे के चौपाल छूटत है ,
बनिया के दुकानें के उधार छूटत है ,
घर ,
रिश्ता
और परिवार टूटत है ,
आधुनिकता के अंधी दौड़ में,
हमार औलाद छूटत है...!
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