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राम की शक्ति पूजा (निराला)

।।1।।


सूर्य अस्त होने को लालायित,आकाश में लालिमा छाई,

संध्या आगमन को आई,दे दुपहर को विदाई,

चित शांत वातावरण,पसरा शांति का सन्नाटा,

सब घर-ठिकाने को लौटे,क्षण भर में ले रात्रि का ओटा....


भल्लूक-कपि की यह सेना महान,

युद्धरत रह कर भी करे,श्रीराम का गुणगान,

आगे आगे सरंक्षक श्रीराम,

पीछे-पीछे सुग्रीव,अंगद,जामवंत महान....


उत्साह-जोश-जुनून से करे प्रहार शत्रु पर,

कर जयघोष श्रीराम का,करे क्षण भर में परास्त...


।।2।।


मन के हारे हार,मन के जीते जीत,

मैं क्यों मन से हारू,निश्चित ही अपनी जीत ठानू,

पर,कुछ आज अलग-सा दिन कुछ ऐसा,

प्रबल हो रहा था कोई शत्रु जैसा....


समस्त सेना परास्त थी,

झुके शीश हताश से,

कोई शक्ति ऐसी थी,

ताकत-सी प्रतीत करने को नतमस्तक-सी....


मन हताश है,

आज देखकर शत्रु की विजय,

आजमाए हैं दांव आज कई,

दिखाई दी फिर भी पराजय....


हंसी में शत्रु के अट्ठास,है उपहास-सा प्रतीत हो रहा,

देख कर मेरी सेना का हाल,संकुचित-सा हुआ जा रहा,

था कौन आज ऐसा,जिसने मुझे हराया है,

वर्षों की मेहनत पर,जिसने पानी फिराया है....


मन में एक भाव था,हूं मैं अपराजित शस्त्रों से युक्त,

मिटा परंतु भ्रम यह,देख समर में पराजय आज,

बैठा मैं शीला पर आज,मैं सोच रहा हूं,

शायद कुछ ऐसा,

पराक्रम आज-सा,देखा नहीं कहीं ऐसा....


महादानव-बलशाली लंकापति,

कर रूद्र रूप धारित ऐसा,

अहंकारी रौंद रहा मेरी सेना को,

केचुला कीट-पतंग जैसा...


मन में कभी भय ना आया,

कोई ख्वाब ना कैसा भी सताया,

चिर-प्रतिद्वंदी ने भी खाई मात,

थी आज कोई महान माया,

बाल रूप में मार दिए थे,महादानव मैंने कई,

आज जो देख रहा,नहीं मेरी दृष्टि के सामने कभी आया....


।।3।।


महापुरुष का गुण नहीं,हताश-हतोत्साहित होना,

गुण है यह शत्रु की भी,प्रशंसा कभी-कभी होना,

संकोच नहीं तुम महान हो,

मगर विचलित कर रहा,तुम्हें मन का अस्थिर होना....


किया,तुमने कई दानवों का दनल,

तुमने किया था,कई महान ऋषियों का यज्ञ सफल,

महान ना कोई तुम-सा,

ना कोई मर्यादित पुरषोत्तम तुम-सा....


ज्ञाता शस्त्र-शास्त्रों के तुम,

पराजय हुई,क्यों मन में उठ रहा भवर-सा....


।।4।।

लंकापति निश्चित ही है,घोर पापी छलकारी,

किया अकेले नारी को हरण,ले माया का साथ,

भिक्षा देने को जो बड़े हाथ,लगाया उसने छल से घात....


काटे पर निहत्थे पक्षी के,जो था तत्पर नारी रक्षा को,

पक्षी होकर भी था कृत्य महान,

मनुष्य होकर भी लंकापति असुर समान....


थी सतीत्व की पवित्र-पहचान,सच्चे प्रेम की मिसाल,

थोप रहा था,स्वयं के प्रेम का आवरण,

जिस पर चढ़ा श्रीराम का आवरण....


कभी ना पा पाएंगे,यहां कोई,

बरभस लगा जोर प्रेम का,

प्रेम है अनुरक्ति मार्ग,

नहीं कोई निज भोम्य कोई है....


है छलाकारी,छलकारी है,

छला जिसने,महादेव को है,

छलिया ऐसा छद्म,

छला जिसने महाशक्ति को....


।।5।।


किया है इसने शायद,माया को वश में,

महाशक्ति ही होगी,मेरे समक्ष में,

कर रही थी,मुझसे मुकाबला,

दे रही जव

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