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होंठों पर सजी गजल-सी है वो...

हृदय को सुना प्रेम का तराना,

कुछ यू करके तन को सुलाना,

बंद आंखों से देख तेरे सपने,

नित भोर कली-सा मुख चूम कर उठाता हूं,

होंठों पर मेरे सजी गज़ल-सी है वो,

जिसे मैं बेवक्त भ्रमर-सा गुनगुनाता हूं,



उठता हूं ख्वाबों की अंगड़ाई तोड़,

तेरी बाहों का आगोश छोड़,

तेरी जुल्फों-सा संवारता हूं,

मैं मेरे तन की चारपाई से,

कुछ इस तरह बिस्तर उतारता हूं,



सुरत को आंखों में बसा तेरी,

खुद को तेरे दर्पण में देखता हूं,

ख्वाबों को नहला,धुला,

आंखों से तेरी शहर देखता हूं,

फिर भी पता नही क्यों,

तेरी यादों का गर्द,

इन आंखों पर छा जाता है,

सर्द शामों में तेरा चेहरा,

धुंध-सा उभर आता है,



लौट आते है घर को जब,

मैं,ख्वाब,यादें,परिंदे सब,

बारी-बारी अपना वृतांत सुनाते है,

ये सब तन को मेरे खरी-खरी सुनाते है,

तन मेरा बिचारा,

हर बार मन से हारा,

साजिशे सभी उसी की,

ख्वाब,यादें,परिंदे,



मेरी छवि पर इल्जाम हैं,

कि मेरी आशिकी का अंजाम है,

कलम पकड़ कर भी,

कागज पर मुझे कहां आराम है,

कसमें,वादे,किस्से,

अब वो सभी हराम है,

बड़ा तड़पाती है यादें,

उसकी यादों में भी कहां आराम है



हां! सूखे होंठों पर सजा लेता हूं,

कुछ तरह दिल को सजा देता हूं,

आंखों को बंद कर,

अक्श उसका ऐसा उभारता हूं,

खंजर लिए हाथों मे

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