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दरिया और चाँद

देखती हूँ किनारे पर बैठ

दरिया कैसे अपनी बाहें उठाता है

चाँद को छूने की बेबाक़ कोशिश करता

बदहवास फिर लहरें नीचे आती

किनारों को गुदगुदाती

सब कुछ खुले आम करता 

ये बेशर्म दरिया और ये चंचल लहरें

फिर भी किसी की नज़रों को नहीं चुभती

 इनकी ये इश्किया हरकतें

किनारों के तो शायद फिर भी 

शैदाई गिने चुने, मुट्ठी भर होंगे

पर चाँद के आशिक़ ????

सारे के सारे बेग़ैरत !!!

दरिया की चाँद को पाने की 

कोशिशों को नज़रंदाज़ करते 

आँखे फेर लेते ये हरजाई

खीज निकालते हैं अपनी-

आस पास के प्रेमी प्रेमिकाओं पर

प्यार पर पाबंदी लगाते

ऊँच नीच, जात पात, और न जाने कितने ऊट पटाँग बहानों से

इन्ही दोगली हरकतों को देखता वो चाँद

मातम मनाता छुप जाता है कई बार

अमावस के नाम पर। 

सिसकता और फिर खुद को सम्भालता 

फिर निकलता है 

तुम्हारी बेग़ैरती का गवाह बनता।

लेकिन तुम जारी रखो

अपना ये पाखंड

नज़र रखना अपने सगे सम्बन्धियों, दोस्तों, पड़ोसियों पर

दरिया का तो कुछ बिगाड़ नही पाओगे

यूँ ही लेटा आँहें भरता

चाँद को निहारेगा भी

और किनारों को लहरें

शर्माती हुई थपथपाएँगी भी

ठेकेदारों !!! तुम रोको उन्हें

जिनके मिलने की और एक होने की

ज़रा सी भी गुंजाइश दिखे तुम्हें

आँखों का वो नासूर न बन जाएँ एक हो कर

यही सोच कर साज़िशें करते रहो

झूठ को सच सच को झूठ

सफ़ेद को स्याह बनाते

ग़द्दार को मसीहा बना

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