कुआनो नदी - ( kuaano-nadii ) Hindi Kavita सर्वेश्वरदयाल सक्सेना | Hindwi's image
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कुआनो नदी - ( kuaano-nadii ) Hindi Kavita सर्वेश्वरदयाल सक्सेना | Hindwi

कुआनो नदी

सर्वेश्वरदयाल सक्सेना



फिर बाढ़ आ गई होगी उस नदी में

पास का फुटहिया बाज़ार बह गया होगा,

पेड़ की शाखों में बँधे खटोले पर

बैठे होंगे बच्चे किसी काछी के

और नीचे कीचड़ में खड़े होंगे चौपाए

पूँछ से मक्खियाँ उड़ाते।

मेरी निगाह कुछ कमज़ोर हो गई है।

दिल्ली की सड़कें दिखती हैं जैसे कुआनो नदी—

नदी जो एक कुएँ से निकली है

जिसे मैं अपने बचपन में

कभी खोज निकालने का उत्साह रखता था।

कुआनो नदी—

सँकरी, नीली, शांत

अभी भी बहती रहती है रात-दिन मेरे सामने

अदेखे को पाने का उत्साह कुरेदती हुई।

बरसात में अपना पाट चौगुना करती

आस-पास के गाँवों को डुबाती

शहर की ऊँची सड़क के

दोनों ओर की नीची ज़मीन को

हरहराते नाले-सा बनाती।

अभी भी मैं एक लंबी शहतीर

अपने घर के दालान से सड़क तक रखकर

वह हरहराता जल पार कर जाता हूँ

जब कि मेरे पिता जाँघ तक धोती उठाए

पानी को हलकोरते आते हैं

कलल-कल, कलल-कल

ज्यों ही आने लगती है अँधेरे में आवाज़

मैं लालटेन लेकर बाहर दौड़ता हूँ

शायद यह रोशनी काम आ जाए।

मछलियाँ, जोंक, पनियल साँप

सबके अलग-अलग ढंग हैं पानी में चलने के

मैं आज भी उनका गवाह हूँ

बड़े ध्यान से मैंने देखा है उन्हें।

पीले-पीले मेढकों की छपाक से ही

मैं बता सकता हूँ पानी यहाँ कितना गहरा है

और बरसात ख़त्म होने पर

इसे सूखने में कितने दिन लगेंगे।

बादल झमाझम बरस रहे हैं

या बरस कर निकल गए हैं

या बरसने के लिए घिघिया रहे हैं

कुआनो नदी वैसी ही पसरी रहती है

हर समय मेरी आँखों के सामने।

बहुत ग़रीब ज़िला है वह बस्ती—

जहाँ मैंने इसे पहली बार देखा था।

मेरे नाना इस नदी में कूद पड़े थे

और निकाल लिए गए थे

ज़िंदगी से ऊब कर मर नहीं सके।

तट पर न रेत थी न सीपियाँ

सख़्त कँकरीली ज़मीन थी काई लगी,

कहीं-कहीं दलदल था, झाड़ियाँ थीं दूर तक

जिनमें सोते कुलबुलाते रहते थे

और चिड़ियाँ एक टहनी से दूसरी टहनी पर

शोर करती झूलती रहती थीं।

बहुत सँभलकर मैं जब भी जाता हूँ

नरसल की हरी छड़ियाँ काटकर लाता हूँ

उनसे लिखने की क़लमें बनाता हूँ

दूसरे उनसे पिपिहरी भी बना लेते हैं

जिसे बड़े शान से बाँसुरी कहते हैं,

उन पिपिहरियों की आवाज़

आज भी सुनाई देती है मुझे

दिल्ली की इन सड़कों पर।

यह नदी मुर्दघाट के लिए मशहूर है।

कुआनो जाने का मतलब

किसी को फूँकने जाना है।

मेरे पिता को हर शव-यात्रा में जाने का शौक़ था।

अक्सर वह आधी-आधी रात लौटते

और लकड़ियाँ गीली होने की शिकायत करते।

माँ से कहते—''कुछ लोग अभागे होते हैं,

उनकी चिता ठीक से नहीं जलती''

और हर अभागे की यही आख़िरी कहानी

मैं आज भी सुनाता हूँ।

इस नदी के किनारे

कोई मेला नहीं लगाता।

न ही पूर्णिमा-स्नान होते हैं।

एक मंदिर है

जो बहुत कम खुलता है

जिसकी सीढ़ियाँ

अहदियों के बैठने के काम आती हैं।

मैं अक्सर वहाँ बैठा रहता हूँ

और दालान के कोने में

टूटा, जाला लगा चमड़े का

एक बहुत पुराना बड़ा ढोल टँगा

देखता रहता हूँ जो अब बजता नहीं

और तेज़ हवा में

खड़खड़ाते विशाल झीने पीपल के पेड़ से

दैवी स्पर्श की तरह

किसी जालीदाप पीले पत्ते के अपने ऊपर

गिरने की प्रतीक्षा करता रहता हूँ।

पुल पर—

दही के मटके लिए एक-एक बार अहीरों को

जाते देखता हूँ

वे सब शहर में दही बेचकर गाँव लौटते होते हैं

कभी-कभी किसी के सिर पर लकड़ियों

के बोझ भी होते हैं

या गठरियाँ, ख़रीदे-सौदे-सुलुफ़ की

उनकी परछाइयाँ शांत हरे जल पर अच्छी लगती हैं।

तट से लगा हुआ एक बाँध है

जिस पर ऊँचे-ऊँचे छायेदार दरख़्त हैं।

जिनके नीचे से सड़क जाती है

कई तीखे घुमाव लेती,

सड़क पर अधिकतर बैलगाड़ियाँ चलती हैं

कभी-कभी कोई एक्का भी

पर्दा बाँधे, औरतों-बच्चों को बैठाए डगमगाता,

और फिर एक सायकिल धूल से भरी हुई,

भेड़-बकरियों के गल्ले,

नए ख़रीदे रँगे सींगों वाले बैल घंटियाँ बजाते

जिनकी आवाज़ धीरे-धीरे दूर होती जाती है।

पीला-पीला सूरज आसमान में डूबता है—

और तभी एक तेज़ नारी-कंठ सुनाई देता है—

‘लाली हो लाली’

और सड़क पर, पुल पर, पेड़ों पर अँधेरा छा

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