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भागी हुई लड़कियाँ - कविता | bhagi hui ladki | हिन्दवी

भागी हुई लड़कियाँ


एक


घर की ज़ंजीरें

कितना ज़्यादा दिखाई पड़ती हैं

जब घर से कोई लड़की भागती है


क्या उस रात की याद आ रही है

जो पुरानी फ़िल्मों में बार-बार आती थी

जब भी कोई लड़की घर से भागती थी?

बारिश से घिरे वे पत्थर के लैंप पोस्ट

सिर्फ़ आँखों की बेचैनी दिखाने भर उनकी रोशनी?


और वे तमाम गाने रजतपर्दों पर दीवानगी के

आज अपने ही घर में सच निकले!


क्या तुम यह सोचते थे कि

वे गाने सिर्फ़ अभिनेता-अभिनेत्रियों के लिए

रचे गए थे?

और वह ख़तरनाक अभिनय

लैला के ध्वंस का

जो मंच से अटूट उठता हुआ

दर्शकों की निजी ज़िदगियों में फैल जाता था?


दो


तुम तो पढ़कर सुनाओगे नहीं

कभी वह ख़त

जिसे भागने से पहले

वह अपनी मेज़ पर रख गई

तुम तो छुपाओगे पूरे ज़माने से

उसका संवाद

चुराओगे उसका शीशा, उसका पारा,

उसका आबनूस

उसकी सात पालों वाली नाव

लेकिन कैसे चुराओगे

एक भागी हुई लड़की की उम्र

जो अभी काफ़ी बची हो सकती है

उसके दुपट्टे के झुटपुटे में?


उसकी बची-खुची चीज़ों को

जला डालोगे?

उसकी अनुपस्थिति को भी जला डालोगे?

जो गूँज रही है उसकी उपस्थिति से

बहुत अधिक

संतूर की तरह

केश में


तीन


उसे मिटाओगे

एक भागी हुई लड़की को मिटाओगे

उसके ही घर की हवा से

उसे वहाँ से भी मिटाओगे

उसका जो बचपन है तुम्हारे भीतर

वहाँ से भी

मैं जानता हूँ

कुलीनता की हिंसा!


लेकिन उसके भागने की बात

याद से नहीं जाएगी

पुरानी पवनचक्कियों की तरह


वह कोई पहली लड़की नहीं है

जो भागी है

और न वह अंतिम लड़की होगी

अभी और भी लड़के होंगे

और भी लड़कियाँ होंगी

जो भागेंगे मार्च के महीने में


लड़की भागती है

जैसे फूलों में गुम होती हुई

तारों में गुम होती हुई

तैराकी की पोशाक में दौड़ती हुई

खचाखच भरे जगरमगर स्टेडियम में


चार


अगर एक लड़की भागती है

तो यह हमेशा ज़रूरी नहीं है

कि कोई लड़का भी भागा होगा

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