एक थी कलम
जिसने स्याह किए थे न जाने कितने सफेद पोश
उसकी रगों में बहता खून अभी सफेद नहीं हुआ था
वो बेबाक बोलती थी
सच सुनती थी
और प्रत्यक्ष ही देखती थी
उसके तीखे धारदार शब्दों से
क़लम होते थे सर सरपरस्तों के
उसके फैसले
तय करते थे किस्मत
आने वाली नस्लों की
फिर एक गुबार उठा
और सब बदल गया
कलम भी...
अब कलम से निकले शब्द जहां भी छिटकते