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बारिश की वह शाम




बारिश की वह शाम 


कुछ झुंझलाकर तो कुछ खिसाया कर मैंने हाथ में पकड़े एक पैन को झटक दिया। माथे पर पड़ी सिलवटों को हटाते हुए मैंने

चली गई बत्ती को कोसा | शायद वह चिड़चिड़ाहट न लिख पाने की थी। मैंने गहरी साँस ली और माँ को पुकारा कोई जवाब

न मिलने पर याद आया की माँ तो किसी रिश्तेदार के यहाँ गई हैं पिता जी के साथ। फिर दूर तक छाए उस अंधकार को

ताकते हुए न जाने किन ख्यालों में खो गई। गहम! गड़म ! गडागड़! की आवाज से मेरी नौका विचारों के सागर से किनारे पर आ गई। कदमों की चाल को तेज करते हुए मैं खिड़की के पास पहुँची । सिंदूरी रंग का आसमान और बारिश की नन्ही-नन्ही बूँदों ने मन को शांति प्रदान करदी। गेट खोल मैं बाहर बैठी की चेहरे को छूती ठंडी ठंडी हवा और मिट्टी की धीमी-धीमी खुशबू ने मुझे ख़ुद में समान किया। तभी मेरी नज़र एक नन्हें से पौधे पर गई जिस पर जैसे ही बूँद गिरती वह झुक जाता परंतु वापस सेना के उस सिपाही की तरह खड़ा हो उठता जिस पर इस स

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