हठ दावानल सा फैल रहा, अब हाथ हमारे जख्मी हैं,
जुगनू के अनगिन शूरवीर, अब साथ हमारे जख्मी हैं
सागर में उठी तरंगों को, अब शांत कराना मुश्किल है
उद्दंड नदी रस्ता भूली, उद्गम तक लाना मुश्किल है
कुछ कच्चे पक्के दोस्त कहीं, अब अंतिम बार बुलाएंगे
कुछ स्याह स्वप्न में डूबेंगे, कुछ इंद्र धनुष बन जायेंगे
तुम अंतिम बार ज़िंदगी को, पीड़ाएँ अर्पित कर दो न!
जीवन का सारा भय, गठरी में बाँध विसर्जित कर दो न!
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