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ज़िंदगी इक सज़ा...

ज़िंदगी गुजर रही मेरी एक मुल्ज़िम की तरह

ज़ुर्म इतना कि तुम्हें खोने की सज़ा पा रहा हूँ..

तेरी यादों में मैंनें ख़ुद को यूँ बिख़रा दिया है

अब अपने ही टुकड़ों को कंधों पर ढोए जा रहा हूँ..

ये रौनक़ देखकर मुझे तुम्हारा ख़याल आता है

पर मैँ सर-ए-बाज़ार में अकेले ही चले जा रहा हूँ..

क्या बद-दुआ मिली मुझे जो तेरा हाथ यूँ छूटा

Tag: तुष्य और2 अन्य
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