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साक़ी-ए-मयख़ाना (Part-2)…

पिला दे अपनी नज़रों का जाम साक़ी

आ गई अपने मिलन की शाम साक़ी..

दिन रात गुज़ारी मयख़ाने में ज़िंदगी

अब आगोश में चाहता हूँ आराम साक़ी..

हालात-ए-ज़िंदगी यूँ परेशान किए हुए

जाम-ए-सुकूँ भी लगता है हराम साक़ी..

मय-कदे से अब कर ली है तौबा मैंने

जब से मिला है ये तेरा पयाम साक़ी..

पर मय-कदे का भी ये अज़ब दस्तूर है

ना पीऊँ तो करते हैं मुझे बदनाम साक़ी..

कोई और ठिकाना नहीं रक़्स-ए-मस्ती का

दिल-ए-ज़ार को कर क़ैद-ए-मक़

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