कोई मुंतज़िर नहीं तेरा बाग़-ए-बहिश्त में
शाम हो गई तुम भी ज़मीं पर लौट आओ..
जो मिला ज़ख़्म-ए-हयात अब नासूर बन रहा
सुनो रूह-ए-क़ुद्स अब मेरा दिल ना दुखाओ..
ज़िंदगी से मिला जो मुझे ज़ख़्म-ए-ताज़ियाना
इस दर्द-ए-मुफ़ारक़त को अब और ना बढ़ाओ..
अब इन सैल-ए-अश्क को रोकना मुश्किल है
सुनो रफ़ीक़-ए-ज़िंदगी अब इतना मत रुलाओ..
कहीं मैं ख़ुद अपनी साँसों से जुदा ना हो जाऊँ
मत रूठो रूह-ए-मुतलक़ इतना ना मुझे सताओ..!!
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