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ग़म-ए-ज़िंदगी...

अक्सर अकेले बैठे मैंने ख़ुद को रोते देखा है

ख़्वाहिशों को अपनी खुली नज़रों से खोते देखा है..

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दर्द से मैं अपने शिकायत करूँ भी तो क्या करूँ

ख़ुशियों को अपनी जो ग़मों का भार ढोते देखा है..

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ख़्वाबों को संजोने में कई रातें गुज़ारी जग कर

उन्हीं निगाहों में अपने ख़्वाबों को सोते देखा है

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