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बेशुमार ख़्वाहिशें...

मुख़्तसर हैं उम्मीदें पर ख़्वाहिशें तो थीं बेशुमार

जानता हूँ आसान नहीं उसका मिलना है दुश्वार

दर्द-ओ-ग़म-ए-ज़िंदगी ने ऐसा कर दिया बीमार

मेरे सब अरमानों का बेरहमी से कर दिया दमार

दास्तां-ए-मोहब्बत को कैसे पूरा करे ये क़लमकार

जब मेरा मुर्शिद ही नहीं मोहब्बत का तलबगार

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