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अल्फ़ाज़-ए-दिल…

कुछ राब्ता तो है तभी अल्फ़ाज़-ए-दिल मचलते हैं

सफ़ेद मोती गहरे अथाह सागर से ही निकलते हैं..

जो रिश्ता दो दिलों की रूह को रूह को बाँधता है

उसी मोहब्बत से नूर-ए-क़लम पत्थरदिल पिघलते हैं..

सच कहूँ तो रूह को छू जाते हैं लिखे अल्फ़ाज़ तेरे

इनको पढ़कर मेरे जज़्बात रेत की तरह फिसलते हैं..

रोशन है ज़िंदगी का दिया पयाम-ए-अजल आनेतक

तबतक आलम-ए-मस्ती में आकर अरमान मेरे उछलते हैं..

मतगिरा हम-क़लम मुझ पर यूँ लफ़्ज़ों की बिजलियाँ

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