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दर्द-ए-जिंदगी

पैरों को जकड़ रखा है जंजीरों ने आशाओं की भावनाओं की,
मन करता है इन्हें तोड़ जाऊं,
खुद के ही ख्वाब कुचल रहा हूं,जिम्मेदारियों की गंठड़ीयां ढोते -ढोते,
मन करता है पटककर इन्हें कहीं दूर दौड़ जाऊं,
मां की बिलखती आंखें फिर करे पीछा,आए सामने मैं जहाँ जाऊं,
ए मेरी दर्द-ए-जिंदगी, ए मेरे दर्द-ए-दिल मैं क्या करूं, कहां जाऊं,

घर की तरफ जाते ये कदम मोड़ लाऊं मैं,ये रिश्ते नाते तोड़ जाऊं मैं,
कुछ तो अपने ही मक्कार निकले और जो जां से बढ़कर यार थे वो भी गद्दार निकले,
मन करता है की बस अब ये दुनिया छोड़ जाऊं मैं,
शराब के नशे में बकता मेरा बाप,बिना किसी गलती के रोती मेरी मां,बाप से भिड़ जाऊं या माँ को चुप कराऊं,
ए मेरी दर्द-ए-जिंदगी, ए मेरे दर्द-ए-दिल मैं क्या करूं, कहां जाऊं,

माँं के आंसू देख खुद रोऊं या अपने आंसुओ को पीकर उसे  चुप कराऊं,
माँ से चुप रहने की कला सीख जाऊं या चीख चीखकर गजलें गाऊं,
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