हुयी महफ़िल में मुझ पे तेरी नज़र-ए-इनायत यूँ, मेरी मौसिकी का बोलबाला हो गया।
है अब्सार से तेरे बरसता नूर कुछ ऐसा, शब-ए-ज़िंदगी में फिर से उजाला हो गया।
सुर्ख आरिज़ ये जब बेहिजाबाँ हुए, दिन में बादल छँटे और उजाले हुए,
गिराए तूने स्याह गेसू कांधे पर, मानिन्द-ए-अंधेरा-ए-शब दिन ये काला हो गया।
ऐसे ज़ुल्म करता है ये हर कदम तेरा, कि ज़ुर्म हौले भी इन को जमाना हो गया,
मग़रूर निकल आये गुज़रगाह पे ऐसे, हर लचक-ए-कमर पे काज़ी का हवाला हो गया।
इक जो आस छुप कर साँस भरती थी, तुझको देख कर वो बेतहाशा भागे जाती है,
और बेकाबू मचलती धड़कन-ए-दिल को, यूँ मानो संभाले इक ज़माना हो गया।
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