
जिसमें कोई बैर ना मज़हब मैं तो हूँ परिंदा नभ का,
मेरे धरम और जात ना पूछो कि मैं तो हूँ बंदा रब का।
बैर बढ़ाते मुल्ले-पंडित, मुझको भाती जोग-फकीरी,
दुनिया की सब राहें मेरी, मुझ को तो जचती राहगीरी।
सफ़ेदपोश मुझे पाठ पढ़ाते,
मुझे भले की राह दिखाते।
सच्चों के गिरेबान में छिपते,
मुझ को काले झूठ ना भाते।
जितने सरहद-सूबे बना लो, मैं तो हूँ बाशिंदा सब का।
जिसमें कोई बैर ना मज़हब मैं तो हूँ परिंदा नभ का,
मेरे धरम और जात ना पूछो कि मैं तो हूँ बंदा रब का।
जो कुछ भी अपना ना हो, वो लगता है बस ख़ुदगर्जी,
और जो अपने हाथ आ गया, वो हो जाता रब की मर्जी।
धर्म-समाज के ठेके
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