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व्यथित मन की आवाज़

आठ घंटे दिन के , तीस दिन महीने में
करता हूं काम , चंद रूपए कमने को      
भूल जाता हूं दुख दर्द अपने , जिम्मेदारियां निभाने में
लौटता हूं जब कमरे को , पिंजरे सा आभास होता है
कोई पूछने को हाल मेरा , न मेरे पास होता है 
फोन पर बातें होती ह
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