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टूटती कोई बात



टूट कर गिर जाती बात कोई 

गले से मेरे 

डूबने लगती गहराइयों में मेरी 

टूटता तारा कोई 

डूब जाता   

देख न पाती आँखें 

अँधेरे में डूब रहे अँधेरे तारे को  

अँधेरी आकाशीय गहराईयों में 

डूबती बात 

खाने लगती टप्पे

अंतस्थ दीवारों पर

पैदा करती कम्पन 

कि झड़ जाता पलस्तर दीवारों का 

नीचे जाने कितनी ही दबी बातें 

उभर आती, दीवारों की शक्ल पर 

हर टप्पा 

उभार देता, जाने कितनी ही शक्लें 

अंदर मेरे शोर मचाती शक्लें 

धीरे-धीरे पैदा करती 

हाथ, धड़, पाँव 

जाने कितने मैं पैदा हो जाते  

घूमने लगते गहराईयों में मेरी 

टकराने लगते आपस में 

फिर कहीं से कोई हत्यारा मैं 

उनके बीच आता 

एक चमकता खंजर लिये 

ये मेरा खंजर नहीं 

किसी ने थमाया, हाथों में उसके 

सजाने भय को 

एक-एक कर वो 

कर देता हत्या जाने कितने मैं की

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