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"अंत भला तो सब भला "

किसी भी कार्य को तय करने वाले प्रेरणास्रोत बहुल हैं। यह प्रेरणा कि कार्य नैतिक हो तथा इससे किसी का नुकसान ना हो रहा हो ।  इन प्रेरणाश्रोतों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण बचपन में ग्रहण किये गए संस्कार हैं। यह बहुत कुछ व्यक्ति विशेष के पारिवारिक व सामाजिक वातावरण पर निर्भर करता है। जैसे कि माता- पिता द्वारा सिखाये गए नैतिक मूल्य - जैसे चोरी ना करना, ईमानदार बनना, किसी को हानि ना पहुँचाना इत्यादि। यदि परिस्थिति व माहौल इन मूल्यों को देने के अनुकूल ना हो तो परिणाम बहुआयामी हो सकते हैं। संभव है कि बच्चा अपने माहौल का ही अनुसरण करे और उसमे वही मूल्य निहित हो जायें जो उसने बचपन से देखे और सुने हों। एक और चीज संभव है, कि ऐसे प्रतिकूल वातावरण में रहते हुए भी बच्चे के नैतिक मूल्यांकन पर इसका कोई असर ना पड़े। वह एक नैतिकवान भिन्न व्यक्ति के रूप में उभरे। इस संभावना को मूर्त रूप देती है -"शिक्षा" । प्रतिकूल परिस्तिथियों में बच्चे की समझ का स्तर अगर तार्किक हो जाये तो समझ लेना चाहिए कि यह श्रेय उसके द्वारा पढ़ी गयी किताबों से सीखे गए मूल्यों का है। अब अगर चिंता का विषय बचता है तो वह उस बच्चे के लिए जिसके तार्किक स्तर पर शिक्षा का असर ना पड़ा हो और उसमें वही अनैतिक मूल्य निहित हो गए हों जो उसने परिवार व समाज से सीखे हों। 
प्रश्न अब यह उठता है कि क्या अब उसका नैतिक पुनर्जन्म संभव है? अगर हाँ तो कैसे? या अनैतिकता उसमें सुदृढ़ जड़ें गहरा के बैठ गई हों और अब उसकी वापसी संभव न हो? जिन व्यक्तियों के जीवन में लचीलापन व सीखने की ललक
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