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गांव शहर में भी बसता तन से न सही मन से मानें

हम गाँवों के गबरू हैं तुम सा 

शहर में जीना क्या जानें।

है गांव शहर में भी बसता तन

से न सही मन से मानें।

बस सूखी रोटी खाई है तुम सा शहद

में पला नहीं।

हमने न झेली न टाली ऐसी भी 

कोई बला नहीं।

हमने न पेड़ से खाया हो फल

ऐसा कोई फला नहीं।

तब तक सिर को दे मारा है जब

तलक पहाड़ भी टला नहीं।

सिर मत्थापच्ची करते जब तुम 

थे भरते लंबी तानें।

हम गाँवों -----

दिल-जान से बात हमेशा की तुम

सी घुटन में जिया नहीं।

है प्यार बाँट कर पाया भी नफ़रत

का प्याला पिया नहीं।

इक काम जगत में नहीं कोई भी

हमने है जो किया नहीं।

है मजा नहीं ऐसा कोई भी

हमने हो जो लिया नहीं।

फिर अन्न-भरे खेतों में खड़ के

दाना-दाना क्यों छानें।

हम गाँवों के ----

है इज्जत की परवाह नहीं 

बेइज्जत हो कर पले बढ़े।

अपनों की खातिर अपने सर 

सबके तो ही इल्जाम मढ़े।

कागज की दुनिया में खोकर भी 

वेद-पुराण बहुत ही पढ़े।

हैं असली जग में भी इतरा कर

खूब तपे और खूब कढ़े।

बस बीज को बोते जाना था कि

स्वर्ण कलश मिलते न गढ़े

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