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किसी सीने पे आहट दी, किसी काँधे पे सर रक्खा

किसी सीने पे आहट दी, किसी काँधे पे सर रक्खा

हुए कितने भी बेपरवाह मगर बस एक घर रक्खा


ज़माने ने ये साजिश की, किसी के हम न हो पाएं

ख़ुदी पे आशना लेकिन हमीं ने हर पहर रक्खा 


वो चलता है तो अक्सर आदतन ग़म भूल जाता है

यह

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